...

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समझ जो न समझी गई
मन का बड़ा ही अजीब खेल था न जाने कैसी हसरतें न जाने कैसी चाहते और उस पर उठते सवाल जवाबों
के सिलसिले अजीबोगरीब कहाँनियाँ इस जान के पीछे रचे गये न जाने कैसे कैसे इँतजाम और रचनाओं के सागर में निसँदेह मछली की तरह हम भी इस सँसार
सागर में डुबे हुए काल बँथनो से बँधे एक शरीर के वस्त्र को पहने खेलों में उलझाये गए हैं..
तो फिर वह ब्रम्ह और शक्ति कैसे अलग रह.सकते थे
जिन्होने इस खेल की रचना की थी भला वह इससे कैसे नहीं खेलता किसी को उसका मनपसँद खिलौना
मिल जाये तो वह उसके साथ खेलने में मगन हो जाता है तो क्या वह अलग रह सकता था...
लोगों की वही समझ थी जो उसने समझा रखा था
शरीर सँरचना में नर नारी की विभाजन रेखा खिंच कर
इस तरह दोनो सँरचना हमेशा एक दुसरे की तरफ खिंची चली जाती थी गोया कि नदियाँ का प्रवाह बहता
चला जा रहा हो अपने ढाल की तरफ अग्रसर...
कहानियों में मन की बात ईच्छाओं का जामा पहनकर सामने प्रकट हो सकती थी भले ही वह एक
काल्पनिक दुनियाँ हो पर वह निसँदेह कुछ समय के लिये हमें हमारी हकीकती की समझ को पहचानने की
ईच्छा से हटा सकती थी...
कहाँनिया इसी तरह दिलचस्प हुआ करती हैं
कभी नासमझ और कभी समझ की पट्टी पढ़ कर भी
जो एक नासमझी की जलधारा में बहता चला जा रहा है जी हाँ मैं अपने बारे में ही कह रहा हूँ आपके बारे में ही कह रहा हूँ यकीनन आप हम दो नहीं पर फिर भी हम दो होकर अपने ही सामने आप ही खड़े हैं...
तो जानते ही हैं हम सभी बीज के अँदर ही...