उम्मीद
उम्मीद दुःख का कारण है,किंतु दूसरी ओर ये गिरते हुए को उठाने में भी सक्षम हैं(जिस कारण हम कहते हैं-"उम्मीद ही तो जीने का सहारा है")।
इस शब्द के ये दो विचित्र रूप किसी को भी भ्रम में डाल सकते हैं कि उम्मीद नकारात्मकता की ओर संकेत कर रहा है अथवा सकारात्मकता की ओर अग्रसर....
तो इस भ्रम को दूर करने हेतु आइए चले उम्मीद की ओर और पहचाने उम्मीद का वास्तविक स्वरूप।
"उम्मीद" एक ऐसा भाव जिसके जन्मते ही हम उत्साह से भर उठते हैं कि मेरा ये विशेष कार्य अथवा इच्छा निश्चित रूप से पूर्ण होगी,
चाहे परिस्थिति कुछ भी हो,ये देर सबेर पूर्ण होनी ही है।
निःसंदेह उत्तम भाव है ये और विश्वास का एक दूसरा रूप भी।
किंतु,
विचार करने वाली बात तो ये है कि उम्मीद हमारे मन में जन्मती है और साथ ही साथ कामना भी उसके पूरे होने की। कामना की तो नियति ही है भंग होना और क्योंकि उम्मीद हमारे मन में जन्मती है तो भला कोई दूसरा हमारे मन की किस प्रकार जान सकता है?
विचार कीजिए
गहन विचार करेंगे तो ये जान पाएँगे कि जब किसी को हमारे मन की पता ही नहीं,तो वो उम्मीद पूरी कैसे कर पाएगा। और यहीं से शुरूआत होती है दुःख की जिसमें हम सामने वाले को दोषी मानकर स्वयं की आत्मा को पीड़ित कर रहे होते हैं,ये जानते हुए कि दोषी हम स्वयं है।
क्या ऐसा नहीं होता?
अब जब दोष हमारा ही था तो बेवजह स्वयं को दुःख दिया ना हमने? तो इस दुःख को सुख में परिवर्तित करने का कर्तव्य भी तो हमारा ही है। कैसे?
हमारे मन में उम्मीद जन्मी,उसका सुख हम भोगना चाहते हैं तो उसके लिए प्रयास भी तो हमें स्वयं ही करने होंगे,कोई और क्यों करे भला?
स्वयं से अर्थात् हम अपने आत्मस्वरूप से तो वार्ता कर ही सकते हैं।
और जो हमारा आत्मस्वरूप हमारे भीतर विराजमान है और हमारे नींद में होने पर भी हमारे भीतर जागता रहता है तो वो तो हमें हर क्षण सुनता भी होगा ही। निःसंदेह फिर तो उन्हें हमारे मन की भी पता है।
जिसे हमारे मन की पता है और जो हर क्षण हमारे भीतर जागता है,तो क्या वो हमारी उम्मीद को अधूरा छोड़ सकता है?
उम्मीद जगा भी तो वही रहा है,और ये संकेत भी कर रहा है कि ये अवश्य पूर्ण होगी,पर हम मूर्ख उसे सुनते कब हैं?
संकेतों पर ध्यान देना शुरू कीजिए,आपके भीतर बैठा आपके माध्यम से स्वयं ही प्रयास करेगा और उस उम्मीद को एक उदहारण को बनाकर प्रस्तुत करेगा। आप हाथ छोड़ देंगे पर वो नहीं छोड़ेगा।
"स्वयं से उम्मीद पर ही जीवन की सार्थकता है,दूसरे से उम्मीद में बिना कारण की पीड़ा है।"
स्वयं के आत्मस्वरूप को जानने हेतु उम्मीद जगा लीजिए।
© beingmayurr
इस शब्द के ये दो विचित्र रूप किसी को भी भ्रम में डाल सकते हैं कि उम्मीद नकारात्मकता की ओर संकेत कर रहा है अथवा सकारात्मकता की ओर अग्रसर....
तो इस भ्रम को दूर करने हेतु आइए चले उम्मीद की ओर और पहचाने उम्मीद का वास्तविक स्वरूप।
"उम्मीद" एक ऐसा भाव जिसके जन्मते ही हम उत्साह से भर उठते हैं कि मेरा ये विशेष कार्य अथवा इच्छा निश्चित रूप से पूर्ण होगी,
चाहे परिस्थिति कुछ भी हो,ये देर सबेर पूर्ण होनी ही है।
निःसंदेह उत्तम भाव है ये और विश्वास का एक दूसरा रूप भी।
किंतु,
विचार करने वाली बात तो ये है कि उम्मीद हमारे मन में जन्मती है और साथ ही साथ कामना भी उसके पूरे होने की। कामना की तो नियति ही है भंग होना और क्योंकि उम्मीद हमारे मन में जन्मती है तो भला कोई दूसरा हमारे मन की किस प्रकार जान सकता है?
विचार कीजिए
गहन विचार करेंगे तो ये जान पाएँगे कि जब किसी को हमारे मन की पता ही नहीं,तो वो उम्मीद पूरी कैसे कर पाएगा। और यहीं से शुरूआत होती है दुःख की जिसमें हम सामने वाले को दोषी मानकर स्वयं की आत्मा को पीड़ित कर रहे होते हैं,ये जानते हुए कि दोषी हम स्वयं है।
क्या ऐसा नहीं होता?
अब जब दोष हमारा ही था तो बेवजह स्वयं को दुःख दिया ना हमने? तो इस दुःख को सुख में परिवर्तित करने का कर्तव्य भी तो हमारा ही है। कैसे?
हमारे मन में उम्मीद जन्मी,उसका सुख हम भोगना चाहते हैं तो उसके लिए प्रयास भी तो हमें स्वयं ही करने होंगे,कोई और क्यों करे भला?
स्वयं से अर्थात् हम अपने आत्मस्वरूप से तो वार्ता कर ही सकते हैं।
और जो हमारा आत्मस्वरूप हमारे भीतर विराजमान है और हमारे नींद में होने पर भी हमारे भीतर जागता रहता है तो वो तो हमें हर क्षण सुनता भी होगा ही। निःसंदेह फिर तो उन्हें हमारे मन की भी पता है।
जिसे हमारे मन की पता है और जो हर क्षण हमारे भीतर जागता है,तो क्या वो हमारी उम्मीद को अधूरा छोड़ सकता है?
उम्मीद जगा भी तो वही रहा है,और ये संकेत भी कर रहा है कि ये अवश्य पूर्ण होगी,पर हम मूर्ख उसे सुनते कब हैं?
संकेतों पर ध्यान देना शुरू कीजिए,आपके भीतर बैठा आपके माध्यम से स्वयं ही प्रयास करेगा और उस उम्मीद को एक उदहारण को बनाकर प्रस्तुत करेगा। आप हाथ छोड़ देंगे पर वो नहीं छोड़ेगा।
"स्वयं से उम्मीद पर ही जीवन की सार्थकता है,दूसरे से उम्मीद में बिना कारण की पीड़ा है।"
स्वयं के आत्मस्वरूप को जानने हेतु उम्मीद जगा लीजिए।
© beingmayurr