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मेरा सपना
बचपन में मैंने एक कहानी पढ़ी थी गृहशोभा की। जिसमें एक व्यक्ति एक दिन अपने आफिस से लौटते वक्त बस में कुछ लड़कियों को आपत्तिजनक रूप में देखा वह समझ गया ये लड़कियां काॅल गर्ल्स है। धीरे धीरे उसे एक चेहरा जाना पहचाना लगा।वह लड़की भी ख़ुद को उसके नज़रों से बचाने की कोशिश कर रही थी नजरे झुकाए रही। अचानक याद आया यह तो मेरा दोस्त प्रवीण की बेटी है ,यह कैसे हुआ यही हालात कैसे? वह कई सवालो के घेरे में आ गया पर खुद पर काबू किया वहां कुछ नहीं बोला ।दो दिन बार रविवार उसके घर गया। घर की हालात खुद दरिद्रता की कहानी बयां कर रही थी। उसकी पत्नी फिकी मुस्कान से स्वागत किया।बेटी चाय लेकर आई। पहले आता था तो कितने तरह के नाश्ता लगता था ।कितनी चहल-पहल और खुशियों से भरा परिवार था ऐसे परिवार की कामना सदा मेरे मन में बसता था अब चाय सिर्फ़? उसने पुछा यह सब क्या है? ऐसे कैसे मालिकाना हालात है? वह दुसरे कमरे में ले जाती है देखिए अपने दोस्त को रात-दिन समाधि में लीन रहते है।वह सोचता है जाने कौन गुरु यह प्रेरणा दे गया है इस परिवार के बर्बादी का। वह फिर भारी मन से उठा कुछ पैसे देकर अपना ख्याल रखने कह कर निकल गया।


मै अभी तक अपने लक्ष्य का विश्लेषण नहीं कर पाई हूं पर इतना निश्चित हूं यह कहानी ने मेरे मन के गहराई में बस‌ गई है। संसारी कर्तव्य पथ से भटकने नही देता है, अपनों को कष्ट में रखकर भला कौन से भगवान मिलेंगे। संन्यास ही लेना था तो विवाह पुर्व ही सोचता, बंधनों को हर हाल मे निभाना होगा।
शायद मेरा यह विचार वही आया हो गृहस्थ जीवन से बढ़कर कहीं और से बैराग को पुरा कर नहीं सकता है यहां अपनों के सुनने और करने पड़ते है गर उस स्थिति में खुद को सहज रहते है तो ही बाहर आकर सफल संन्यासी बन सकते है वरना शेर के डर से भागा हाथी गांव के कुआं में जा गिरा। कभी भी कोई साधु-संन्यासी को देखती हूं यह कहानी का चलचित्र उभर आता है। लेकिन संन्यासी जीवन भी मुझे प्रवाहित करता है। खासकर नंगा साधुओं की।
quora aap me mera ek jawab.

© Sunita barnwal