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स्थिति का अर्थ क्या है
*"स्थिति" के मायने क्या हैं?*

ध्यान से समझें तो समझ में जरूर आयेगा। स्थिति के मायने अनेक आयामी हैं। स्थिति का मतलब केवल आध्यात्मिक स्थिति से या आत्मिक स्थिति से ही नहीं है। बहुत बार कुछ लोग स्थिति का अर्थ केवल आत्मिक आंतरिक स्थिति से ही समझते हैं। लेकिन हमारी ऐसी समझ अधूरी समझ होती है।

स्थिति के विषय को हम अनेकानेक विषयों में फैलाकर अर्थात् विस्तार करके देख समझ सकते हैं। अनेक भौतिक स्थितियां हैं। अनेक मानसिक स्थितियां हैं। अनेक बौद्धिक स्थितियां हैं। अनेक आध्यात्मिक स्थितियां हैं। अनेक सामाजिक स्थितियां हैं। अनेक व्यवहारिक स्थितियां हैं। प्रत्येक अणु परमाणु की अपनी अपनी स्थितियां हैं। यानि कि प्राकृतिक या अभौतिक रूप से स्थिति(यां) कई प्रकार की होती हैं और इन स्थितियों में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं।

किसी मनुष्य की किन्हीं विशेष प्रकार की स्थितियां सबल (अच्छी) होती हैं। किसी अन्य व्यक्ति की किन्हीं अन्य प्रकार की स्थितियां अच्छी होती हैं। ऐसा बहुत कम अनुभव आता है कि किसी व्यक्ति की सभी प्रकार की स्थितियां अच्छी (सबल) हों। प्रत्येक के जीवन में स्थिति के कुछ कॉलम बिल्कुल अच्छे होते हैं और कुछ कॉलम बिल्कुल खाली रहते हैं। बहुत गहरे में इसका अर्थ यह हुआ प्रत्येक व्यक्ति की स्थितियां अलग अलग और अलग अलग अनुपात में रहती हैं। कुछ स्थितियों में वह उत्कृष्ठ उच्च उच्चतम होता है और कुछ स्थितियों में वह कनिष्ठ होता है। यह प्रत्येक व्यक्ति का अपना अपना ड्रामा होता है जो इनबिल्ट (inbuilt) होता है।

हम देवी देवताओं की सर्वगुण सम्पन्न सोलह कला सम्पूर्ण ....आदि की जो उपमा देते हैं उसके भी अर्थ गहरे हैं। उसका यह अर्थ नहीं हो सकता है कि देवी देवताओं की आत्माओं की स्थितियां जीवन के सभी आयामों में प्रैक्टिकल एकसाथ भरपूरता की होती है। भौतिक जीवन परस्पर निर्भरता का जीवन होता है। फिर चाहे वह सतयुग का जीवन हो या कलयुग का जीवन हो। इसलिए ही जीवन की समस्त भौतिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्थितियों के अनुसार यह सम्पन्नता और विपन्नता की दोनों स्थितियां तो सब आत्माओं की हैं। भौतिक संसार और भौतिक शरीर मन की अपनी सीमाएं होती हैं। कोई भी व्यक्ति भौतिक जगत में सर्वांगीण नहीं होता है। हां, सतयुग और अन्य युगों की सम्पन्नता और विपन्नता के अनुपात में सिर्फ फर्क हो सकता है। यह भी हो सकता है कि सतयुग की स्थितियों में प्रत्येक देवी देवता की आत्मा में किसी खास प्रकार की स्थिति का विशिष्टिकरण (specialization) स्वाभाविक (नेचुरल) रूप से हो और इसी कारण से वह आत्मा स्वयं को सर्व प्रकार से संपन्न अनुभव करती हो। अब प्रत्येक आत्मा में हम क्या देखते हैं अर्थात् हमारी नजर क्या देखती है। हम किसी व्यक्ति का केवल खाली रिक्त कोना देखते हैं या केवल भरपूर कोना देखते हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी समझ पर निर्भर करता है। अध्यात्मिक प्रज्ञा कहती है कि हमें केवल सकारात्मक ही देखना है। यही उत्कृष्ठ और दिव्य जीवन जीने की कला है

इसी संदर्भ में एक गहरी प्रज्ञा समझ लेने जैसी है। प्रत्येक व्यक्ति की जैसी भी स्थिति(यां) होती हैं या हैं उसके परोक्ष में दो कारण हैं। एक है मनुष्य सृष्टि का अनादि अविनाशी ड्रामा और दूसरा है पुरुषार्थ/सेवा/कर्म/विकर्म। यह विश्व ड्रामा बहुत विचित्र बना हुआ है। इस ड्रामा के अंतर्गत ही पुरुषार्थ और प्रालब्ध इत्यादि का नियमबद्ध खेल चलता रहता है।