श्रध्दा... आख़िर तुम बच आई थीं ना फिर दुबारा क्यों चली गई...?? क्या नियति ले गई...??
श्रद्धा... नाम में ही छिपा है विश्वास..
रही भी होगी वैसी...
जल्द विश्वास कर लेती होगी सब पर..
समाज की गणित को १ और १ दो समझ ही आकलन करने वाली...
पर समाज में तो कभी १ और १ दो हुआ ही नहीं,
यहां तो पग पग पर रंग बदलती दुनिया है...
हर वक्त कहीं कोई न कोई शिकारी शिकार को आतुर है.. बहेलिए की तरह जाल बिछाए बैठा है.. लूटने को...
कोई धन दौलत को तो कोई जिस्म को... नोचने लूटने बैठा है...
कोई और बेरहम होता है वो लूटता भी है और कत्ल भी कर देता है सबूत मिटाने के लिए..
और कोई...
रही भी होगी वैसी...
जल्द विश्वास कर लेती होगी सब पर..
समाज की गणित को १ और १ दो समझ ही आकलन करने वाली...
पर समाज में तो कभी १ और १ दो हुआ ही नहीं,
यहां तो पग पग पर रंग बदलती दुनिया है...
हर वक्त कहीं कोई न कोई शिकारी शिकार को आतुर है.. बहेलिए की तरह जाल बिछाए बैठा है.. लूटने को...
कोई धन दौलत को तो कोई जिस्म को... नोचने लूटने बैठा है...
कोई और बेरहम होता है वो लूटता भी है और कत्ल भी कर देता है सबूत मिटाने के लिए..
और कोई...