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मैं : मेरा दोस्त।।
कभी कभी दिल करता है खुद से बातें करूं। पर बातें तो दो लोगों के बीच होती है। मैं भी दो बन जाता हूं। एक वो जो इस वक्त यहां आपसे बातें कर रहा है और एक वो जिससे मैं बातें करता हूं। जो आपसे बातें कर रहा है वो समझदार नहीं है और जिससे मैं बातें करता हूं वो नासमझ नहीं है। या यूं कहूं तो जो आपसे बातें कर रहा है वो किसी की भी बातों में आ जाता है, पर जिससे मैं बातें करता हूं वो बहुत चालाक है। पर यहां इस दुनियां में मेरा वो चालाक दोस्त आ नहीं पा रहा है। मैं लाख कोशिश करता हूं की वो आ जाए और मुझे मतलबी लोगों से दूर कर दें, पर मैं हर बार असफल हो जाता हूं। बार-बार नासमझ बनकर रह जाता हूं। लेकिन मेरे इस दोस्त को, जिससे हर रोज मेरी बातें होती है उसे दुनियां के सामने आना पड़ेगा। वो नहीं आया तो शायद मेरा अस्तित्व नहीं रहेगा। मैं अकेले इस जालिम दुनियां का सामना नहीं कर पाऊंगा। एक बदलाव चाहिए मेरे इस रूप को जो नासमझ नहीं हो, जो दुनियां की बातों को नजरंदाज करना जानता हो, जिसे मोहब्बत से नहीं नफरत से इश्क हो, जो खुद का ख्याल रखना जानता हूं, जिसकी सोच सकारात्मक हो और जो उस आईने की तरह हो जहां कांटे दिखाने वाले को कांटे ही दिखे। हां! मेरे इस रूप को बदलना होगा। मेरे उस दोस्त को मेरे जहन से बाहर आना होगा।

“खुद से थोड़ी हटके मुलाकात करनी है। खुद को एक बार मारनी है फिर खुद से बात करनी है।”

© Rahul Raghav

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