...

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मैं ऊब गई हूँ
सुनो,
कैसे हो..?
छोड़ो.. मत बताओ!
क्योंकि 'ठीक हूँ।' यह झूठ मुझसे मत बोलो।
तुमसे कुछ पूछना है मुझे..
क्या कभी तुमने यूँ ही बेवजह घण्टों दीवार को देखा है..?
क्या महीनों तक तुम घर पर ही रह सकते हो बिना किसी मनोरंजन के..?
मेरे सवाल तुम्हें अटपटे लग रहे हैं ना..!
मुझे भी ऐसे ही बड़ा अटपटा सा लगता है.. मेरा सवाल नहीं बल्कि मेरा स्वभाव।
....
मैं अब जीना नहीं चाहती..!
हाँ तुमने सही पढ़ा.. मैं ऊब चुकी हूँ.. खुद से!
लोग अच्छे हैं, बस मुझे नहीं लगते!
जीवन की ख़ूबसूरती अब नज़र नहीं आती।
जैसे मेरे दृष्टिकोण पर काई जम गई हो। ऊपरी सतह की बदसूरती जीवन की ख़ूबसूरती को गला रही है..
जीवन एक सड़ चुकी देह की भांति केवल दुर्गंध फैला रहा है।
ना मैं जीना चाहती हूँ,
ना अभी तक मरने का ख़्याल आया है।
अवसाद में नहीं हूँ.. बस मन भर गया।
जैसे ज़्यादा पेट भर जाने से उल्टी हो जाती है .
ठीक वैसे ही अत्यधिक दुःख मन भर देता है..वह मनुष्य को जीवित दिखाता है, छोड़ता नहीं।
मुझे दूसरा जन्म भी नहीं चाहिए। मेरा इस जन्म से ही हृदय, आत्मा सब तृप्त हो चुके हैं। यही जन्म भारी पड़ रहा है। अगर सात जन्म का सिद्धांत सच है तो मेरा यही सातवा जन्म है।
....
सुनो,
एक बात बताओ?
ये बेवज़ह हंसना, खुश रहना, खुशी को दिखाने के लिए उछलना-कूदना, बिना इच्छा के बातें करना, और ये उदास ना होने का ढोंग करना.. क्या ज़रूरी है?
थकते नहीं हो?
क्योंकि मुझे थकान होती है।
मुस्कुराने की जद्दोजहद में गालों में दर्द होने लगता है।
ये होंठ चोड़े करके बड़ी सी बत्तीसी दिखाने में मुझे तो मौत आती है। दर्द होता है बिल्कुल वैसा जैसे ग़ुब्बारे फुलाने से गाल में होता है।
अच्छा! छोड़ो यह सब..
मगर अगली बार जब मुस्कुराओ तो होंठ चोड़े करने से बनने वाली मुस्कुराहट की लकीर चेहरे पर नहीं आँखों में उतरने देना। क्योंकि तुम्हारी हंसी तुम्हारी आँखों से झलकनी चाहिए जैसे तुम्हारा दुःख झलकता है।
मुझे केवल आँखें ही सच्ची लगती हैं..
क्योंकि जब तक तुम्हारी कोई भी भावना या भाव आँखों में ना उतरे.. माफ़ करना तुम खुद को छल रहे हो।
फिर मिलेंगे..
मेरा दीवार को देखने का समय हो गया है।

प्रेम पहुंचे!
राम राम सा❤️
-रूपकीबातें
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