हमारी मां(अंतिम भाग)
समय बीतता गया,हम बड़े हुए।इस बीच औरंगाबाद से पत्र-व्यवहार होता था।मलकानगिरी आना-जाना लगा रहता था।वे लोग भी आते।सूर्यकांत मामाजी का ससुराल भी हैदराबाद में ही था।उनसे भी मेल-मुलाकात होती।मम्मीजी पता नहीं कैसे सब संभाल लेती।अपना स्कूल,घर,यहां ननिहाल और ददियाल के रिश्तेदार,अपनी दो घनी सहेलियां,सभी कुछ वह परफेक्ट कर लें लेकिन।एक दिन मौसी जी का पोता जो मेरी ही उम्र का था वो मेरे लिए रिश्ता लेकर आया तब मम्मी बोलीं"देख बेटा ये सच है कि मैं ब्राह्मण परिवार में पैदा हुई।पर मेरी परवरिश सिखों में हुई,मेरे पति सिख हैं और मेरे बच्चों को भी मैं सिख परिवारों से ही जोडूंगी।जितने प्रेम और विश्वास के साथ अपना नाम देकर मुझे इन माता-पिता ने पाला और विवाह किया उसका अनादर मैं नहीं करूंगी,मुझे आसा सिंघ और सुंदर कौर की निशानी कहते हैं सब,मैं उसे कम नहीं होने दूंगी।और सब कुछ जानते हुए भी मुझे अपनाकर अपने घर की बहू बना कर ले जाने वाले मेरे सास,-ससुर तथा हर कदम पर साथ देने वाले मेरे पति...