...

4 views

हमारी मां(अंतिम भाग)
समय बीतता गया,हम बड़े हुए।इस बीच औरंगाबाद से पत्र-व्यवहार होता था।मलकानगिरी आना-जाना लगा रहता था।वे लोग भी आते।सूर्यकांत मामाजी का ससुराल भी हैदराबाद में ही था।उनसे भी मेल-मुलाकात होती।मम्मीजी पता नहीं कैसे सब संभाल लेती।अपना स्कूल,घर,यहां ननिहाल और ददियाल के रिश्तेदार,अपनी दो घनी सहेलियां,सभी कुछ वह परफेक्ट कर लें लेकिन।एक दिन मौसी जी का पोता जो मेरी ही उम्र का था वो मेरे लिए रिश्ता लेकर आया तब मम्मी बोलीं"देख बेटा ये सच है कि मैं ब्राह्मण परिवार में पैदा हुई।पर मेरी परवरिश सिखों में हुई,मेरे पति सिख हैं और मेरे बच्चों को भी मैं सिख परिवारों से ही जोडूंगी।जितने प्रेम और विश्वास के साथ अपना नाम देकर मुझे इन माता-पिता ने पाला और विवाह किया उसका अनादर मैं नहीं करूंगी,मुझे आसा सिंघ और सुंदर कौर की निशानी कहते हैं सब,मैं उसे कम नहीं होने दूंगी।और सब कुछ जानते हुए भी मुझे अपनाकर अपने घर की बहू बना कर ले जाने वाले मेरे सास,-ससुर तथा हर कदम पर साथ देने वाले मेरे पति को भी कैसे मैं झुठला सकती हूं।मैंने सिर्फ समाज को बताने के लिए और अपने मन की शंकाओं को दूर करने के लिये ये खोज की थी।मुझे इसी तरह से रहना है और अपने बच्चों के रिश्ते सिखों में ही करने हैं।"
सब कुछ सही चल रहा था,मम्मी पूजा-पाठ भी बहुत करती थीं।हर त्यौहार वे मनाती थीं।श्रावण के शनि-सोमवार का व्रत हो,पूनम या नवरात्रि का व्रत हो,कार्तिक मास में जहां वे अंम्रित वेले गुरूद्वारे जाकर ज्योत बालतीं वहीं विट्ठल के मंदिर में काकड़ा आरती में शामिल होतीं। मेरे लिए एक रिश्ता आया,रिश्तेदार पुराने ही थे।सो आगे बढ़ने का निश्चय किया गया।सारी तैयारी तो हो सकती थी पर लड़के वालों ने स्कूटर मांगा जिसका इंतजाम होना कठिन लग रहा था।
पापाजी ने तायाजी के एक दोस्त से कर्ज लिया।शादी बड़ी धूम-धाम से हुई।पापाजी की ड्यूटी प्राइवेट थी,पापाजी गुस्से वाले थे,अचानक उनकी नौकरी चली गयी।भाई पढ़ रहा था,सब मम्मी पर भार आ गया था।तभी दादाजी और दादीजी भी चल बसे।फिर एक दिन तायाजी ने कर्ज की बात छेड़ी।उस बहस में मम्मी को पहला अटैक आया।स्कूल में बच्चों की परीक्षाएं खत्म हुईं,उनके रिजल्ट निकाले गये।फिर टीचर्स का स्ट्राइक शुरू हुआ एड्स नहीं आने के कारण टीचर्स को सैलरी नहीं दी जा रही थी।भाई ने पढाई छोड़ दी और कोरियर सर्विस में काम करने लगा।मैं अभी अभी अपने दोनों बच्चों को लेकर रह कर आई थी।सोमवार का दिन था मम्मी रोक रही थीं मुझे जाने से,पर मैं रूकी नहीं क्योंकि ससुराल में काम था।
गुरूवार का दिन था १६ मई १९९६ दोपहर के दो बजे सासुमां ने मुझे हाल में बुलाया और कहा देख पड़ोस के घर में फोन आया तेरी मम्मी गिर गयी है,छोटा आ रहा है तू तैयार हो जा ।मुझे कुछ भी नहीं सूझा मैं उन्हीं कपड़ों में निकल गयी।जब घर पहुंचे तो मम्मी नहीं थे भाई और पापाजी रो रहे थे,अड़ोस-पड़ोस वाले भी आकर रो रहे थे।मैं दोनों बच्चों को लेकर मम्मी के पास बैठ गयी।भाई बोला ,"जीजीमा मेरे इतना मना करने के बावजूद कपड़े धोने बैठे थे ,पता नहीं कैसे पैर फिसल गया,मैं जाकर जब उठाया तो मेरे हाथों में ही शांत हो गये।"
एक महीने बाद जब मैं स्कूल गयी तो हेडमास्टर साहब के पीछे मम्मी की बड़ी फोटो लगी थी गांधीजी की फोटो हुआ करती थी,जब मैं देखने लगीं तब सर बोले बेटा ""तेरे मम्मी जैसी आदर्श व्यक्तित्व वाली टीचर ,कभी हो सकती हैं क्या वो हमारे सोसाइटी के लिये प्रेरणा है"।मम्मी के स्कूल में गरीब बच्चे आते थे,मम्मी की कोशिश हमेशा यही रहती कि वे हर बच्चे को दसवीं तक पढ़ने दें,बीच से रूक जाए।दक्षिण भारत होने के कारण हिंदी का चलन कम था,दक्खिनी चलती थी,वे बच्चों को सिखाने में रहती,राष्ट् भाषा का प्रचार करने के लिये।फिर मैं टीचर्स के स्टाफ रूम में गयी वहां भी मम्मी की बड़ी फोटो लगी थी।टीचर्स कह रहे थे हर रोज हम बहनजी से मिले बगैर अपने क्लास में नहीं जाते हैं।उनकी जूनियर टीचर बोलीं बहन जी ने तो हमारे लिए कोई काम ही नहीं छोड़ा,उनका नेक्स्ट एकेडेमिक प्लान भी पूरी तरह से तैयार है।मेरे और मेरे भाई के आंखों से आंसूओं नहीं रूक रहे थे । ऐसी थीं
हमारी मां ।।
समाप्त🙏