एक पुरुष की मन की व्यथा ......
मै एक पुरुष हूं, हा मै एक पुरुष हूं
जो चलता फिरता एक मुसाफिर हूं
हा अब मै बड़ा हो गया हूं
पैरो पे अपने खड़ा हो गया हूं
कल तक था इन हाथों में क्रिकेट का बल्ला
कल तक मै था कितना शर्मिला और झल्ला
घर का बोझ आज कंधे पर है
सारा ध्यान अब काम धंधे पर है
वक्त की परवाह ना थी कभी
उसी वक्त की है अब हर वक्त कम है
वक्त से ऑफिस...
जो चलता फिरता एक मुसाफिर हूं
हा अब मै बड़ा हो गया हूं
पैरो पे अपने खड़ा हो गया हूं
कल तक था इन हाथों में क्रिकेट का बल्ला
कल तक मै था कितना शर्मिला और झल्ला
घर का बोझ आज कंधे पर है
सारा ध्यान अब काम धंधे पर है
वक्त की परवाह ना थी कभी
उसी वक्त की है अब हर वक्त कम है
वक्त से ऑफिस...