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उत्तर-कथा
उत्तर-कथा

कन्हौली गद्दी पर शाम के समय सुदामा चौधरी की सरेआम पिटाई की खबर अंधेरा पसरने तक आग की तरह पूरे गाँव-जवार में फैल गयी। किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है।एक सीधे-सादे गरीब आदमी को भला किसी से क्या दुश्मनी हो सकती थी। न झूर-डरार का झगड़ा न किसी से कोई केस-मुकदमा। रोज कमाने-खानेवाले एक खेतिहर मजदूर की औकात ही क्या कि किसी से लड़े-भिड़े।दीनबंधु लाल तो एकदम सन्न-से रह गये थे।बचपन के हमउम्र दोस्त थे;मिडिल क्लास तक साथ-साथ पढ़े थे।बाद में सुदामा की पढ़ाई छूट गयी थी।टीवी से रोगग्रस्त पिता के कंधों का बोझ कच्ची उम्र में ही उसके उपर आ पड़ा था।यह एक असमय नियति की मार थी जो एक भरे-पूरे परिवार के भरण-पोषण के लिए उसे खेतों में मजदूरी करने के लिए विवश कर दिया। जबकि दीनबंधु ने गरीबी में भी जैसे-तैसे मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी, लेकिन आगे की पढ़ाई वह भी नहीं कर पाया। तब प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उनकी दोस्ती पर कोई आँच नहीं आयी थी। लेकिन इधर कुछ समय से उनके रिश्तों में एक संदेह भरा अविश्वास सा घर करने लगा था।पहले जैसी गरमाहट नहीं रह गयी थी। ऐसा सिर्फ उन्हीं के साथ नहीं बल्कि पूरे गाँव की समरस जिंदगी में एक दरार-सी पड़ती गयी थी।यह राजनीति का एक बिल्कुल नया चेहरा था।
वह मण्डल कमीशन के लागू होने के तुरंत बाद का एक दौर था।आरक्षण के मुद्दे पर पुरा गाँव दो फाँकों में बँट गया था। देश के कई शहरों और ग्रामीण इलाकों में उग्र हिंसक झड़पें हो रही थीं।पूरा समाज अगडों-पिछड़ों में बँट गया था।चुनावों में इस राजनीति ने खूब रंग दिखाया और पिछड़ी जातियों के ध्रुवीकरण से सामाजिक न्याय की जीत हुई। बहुत पुरानी नहीं यह कुछ महीनों पूर्व की ही बात है।इस क्षेत्र के नव-निर्वाचित विधायक- प्रजापति यादव भी हमारे इसी गाँव के एक स्मृद्ध परिवार से हैं।अपने गाँव की ऊँची जातिवाले उन्हें मंडल यादव भी कहा करते हैं। विधानसभा में इस जाति से सबसे अधिक विधायक चुनकर गये हैं।हमारे राज्य में यादवों की जनसँख्या सबसे अधिक है। इस बार की चुनावी लहर में अनेक अगड़ी जातियों के धुरंधर नेताओं की जमानतें भी जब्त हुई थीं। उन्हीं पीटे हुए मोहरों में से एक इस इलाके के निवर्तमान विधायक राम राज तिवारी थे जो इस क्षेत्र से दो बार लगातार विधायक रह चुके थे।
दरअसल, तिवारी जी की पार्टी घोषित रूप से हिन्दुत्व की राजनीति के सहारे देश में राम-राज लाना चाहती थी। इसलिए चुनाव के पूर्व किसी भी तरह से साम्प्रदायिक तनाव पैदा कर देना उसकी चुनावी रणनीति का एक अहम हिस्सा था। लेकिन इस बार के चुनाव का रंग ही कुछ और था। अवाम के दिलो-दिमाग पर मण्डल कमीशन और सामाजिक न्याय का नशा कुछ इस कदर चढ़ता गया था कि उसके आगे कोई भी मुद्दा टिक नहीं पाया। हिन्दू कार्ड चलने की तमाम कोशिशें नाकाम हुईं।पाशा पलट गया था। जीत की जश्न में जिस दिन प्रजापति के घर पर बधाई देनेवालों की भीड़ इकट्ठी थी ,उसमें मन मारकर कई अगड़ी जातियों के दबंग लोग भी शामिल हुए थे। जिन लोगों ने चुनाव में भीतरघात किया था,अब वे भी उपरी मन से अपने को समर्थकों में दीखा रहे थे ।स्वयं रजाराम तिवारी के वयोवृद्ध पिता जो इस घर के पुरोहित भी थे,उन्हें भी आना पड़ा था।उन्होंने अपना पुश्तैनी धंधा नहीं छोड़ा था। जब विधायक के घर पधारे तो अपार जन-समूह का भंवर तोड़ते हुए प्रजापति जी ने सबसे पहले उनका पालागन किया। कुल पुरोहित होने के नाते पंडित जी ने कांपते हाथों से उनकी पीठ थपथपाई और आशीर्वाद दिया -' युग-युग जियो बेटवा ! प्रजापति !! मेरे धन्यभाग कि मेरा ही किया हुआ तेरा नामकरण संस्कार आज सार्थक हुआ। भीष्म पितामह की तरह अपने को उदात्त और निस्पृह दिखाते हुए उन्होने कहा-' अपने बेटवा के हारने का कोई दुःख नहीं अब , तू भी तो मेरे लिए बेटा समान है।' पंडित जी के घड़ियाली आँसू देख प्रजापति की घनी मूँछों से ढँके होंठों पर एक मुस्कान तिरने लगी।अपनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए कहा-' सब आपका ही आशीर्वाद तो है, पंडित जी ! तिवारी जी से मेरा राजनीतिक मतभेद जरूर है लेकिन मनभेद नहीं।' ऐन तभी अपने ही गाँव के किशोर सिंह और उसके लाव-लश्कर को अपनी तरफ आते देख प्रजापति जी उधर खिसक लिए और किशोर सिंह को...