...

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गुड्डे गुड़ियों वाला प्यार
सिमी ए सिमी ..
अले देख तो इद्धल
नहीं तो कट्टी

का देखू तू मेरा गुड्डा बन

फिर मैं देखती..


आह ..सिमी..
राजू माज़ी की उन अल्लहड़ गलियों से बाहर
आ चुका था,,

उसकी सिमी अब बड़ी हो चुकी है ,और वो भी
किस्मत हमे मिलाता भी है और वो ही अलग भी
कर देता हैं, और वोही एक बार फिर मिला देता है
एक उम्मीद थी ठीक सुबह के ख्वाबीदा चिराग के मानिंद

काश वो मिलन सिमी के लिए जुदाई की छुभन होती
पर मैं तो अब भी उसका गुड्डा ही रह गया,

एक खिलौना था बस जो बेजुबान ही रह गया,
उसे हंसा कर खुद को हंसाना ही मेरी खुशियां थी,
© 0✍️sifar
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