...

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खामोशियां ...
एक अलसाई सी दोपहर है...
कुछ कुछ अनमनी सी मै..
अचानक मन के किसी कोने से तुम उग आते हो।
और मै पिरा-पिरा उठती हूँ ...
हाँ,देखती हूँ तुमको अपने घने केशों मे ऊलझते हुए।
कभी उन्हे सहलाते हुए ...
तुम अक्सर पुछते थे न कि तुम जब भी मेरे बालों को सहलाते हो मेरी पलकें मुंदने क्यों लगती है ...??
मैंने भी जानना चाहा,
शायद! तुम्हारी उंगलियां मेरे बालों को कोई खूबसूरत सा नज्म सुना जाती हों ,जो रुह से गुजरती हुई मेरी पलकों तक पहुंच जाती हों ....
हाँ शायद! ऐसा ही कुछ होता हो।

तुम नही हो, फिर भी सबकुछ वैसे का वैसा बिखरा पड़ा है...सबकुछ !! कही तुम्हारी हंसी गुंज रही है, कही तुम्हारी वो खूबसूरत बातें, जिसमे खोकर कभी मै अपना सुध बुध खो बैठी थी ...
तुम्हारे जाने के बाद भी कुछ भी समेटने का दिल नही कर रहा है।
कभी-कभी बिखराव कितना अपना सा लगता है। मानो अपने ही वजूद का कोई हिस्सा हो। बिलकुल रुई के नर्म फाहे सा ...

तुम्हे आंसु बिलकुल पसंद नही थे। लेकिन मै क्या करती...?? तुम्हे देखते ही न जाने कहाँ का समंदर घुमड़ने लगता था।
आंखें डब डब...
यकीन मानो मै जानबूझकर ऐसा नही करती थी।
तुम्हे याद है? एक दिन तुमने कहा था मत किया करो मेरा इंतजार। पता नही तुम्हारी आवाज़ की उदासी थी या कुछ और...पर कुछ तो था जो मुझे भीतर तक तोड़ता चला गया था। शायद ! उसी समय गले मे एक बादल अटक गया था,जो आंखों से सैलाब बन जब तब बहने लगता था।
पर बहकर भी कुछ शेष रह जाता था, गले मे अटका हुआ...

जानते हो ये जो मेरा दिल है न !! ये भी तुम्हारी ही चुगली करता है,

यकीनन कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी उसकी भी...
वर्ना ऐसे तो नही दुखाता वो दिल मेरा ...

जी करता है तुम्हारे साथ बिताए हुए उन खूबसूरत पलों को आंखों मे आंज लूँ, हमेशा के लिए तुम्हे आंखों मे छुपा लूं... जब भी लड़खडाती हूँ तुम आकर थाम लेते हो
मुझे।
कभी-कभी एहसास होता है जैसे एक वृत्त से बाहर निकल तुम बादल बन घिर गए हो मेरे आस पास..
एक वृत्ताकार के रुप मे। और मै भींग जाती हूँ, ठीक उसी तरह जैसे पहली बारिश मे धरती सिहर उठती है..
मै भी तुममे कही भिंगती चली जा रही हूँ।
जब भी ये दिल उदास होता है ...
जाने कौन आस पास होता है ...

-Aparna