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मोहरा
साहेब ! थोड़ी ऊँची आवाज में राम सिंगार दफ्तरी ने सबको चौकन्ना किया।सभी ने गेट की तरफ एक नजर डाली और अपनी-अपनी कुर्सी पर आकर जम गये।साहब दफ्तर में दाखिल हुए और एक सशंकित नजर से दफ्तर के पूरे माहौल का जायजा लेते हुए अपने चेंबर का दरवाजा खोला।अभी थोड़ी देर पहले लगती हुई ठहाकों की अनुगूँज वातावरण में अभी भी मौजूद थी।
इस दफ्तर की एक खास रिवायत यह है कि साहब की गैरहाजिरी में बात चाहे कहीं से भी शुरू हो, अंत में घूम-फिर कर साहब पर ही आ जाती है। जैसे,बात अगर मौसम पर शुरू होगी ,तो प्रकृति और देश-दुनिया के मौसमों से चलती हुई साहब तक आ जायेगी या बात अगर राजनीति पर हो रही हो तो भी देश-विदेश से होती हुई दफ्तर की राजनीति और उसके केंद्र -साहब के इर्द-गिर्द घूमने लगेगी। ठीक तेजी से थर्मामीटर या बेरोमीटर के उठते-गिरते पारे की तरह।एक खास बात यह भी कि इस दरम्यान एक दूसरे पर किए गए छोटे-मोटे आरोप-प्रत्यारोप कभी यहाँ गंभीर शक्ल इख़्तियार नहीं करते या बात का बतंगड़ नहीं बनता। ऐसी बातें किसी को बुरी लगे इसके पहले ही उसे हँसी-हँसी में समवेत ठहाकों से दबा दी जाती है।
अभी थोड़ी देर पहले की बातचीत एक खातेधारक की मृत्यु से शुरू होकर दर्शन-अध्यात्म का चक्कर काटती हुई अंत में साहब पर आकर अटक गई ।दरअसल, कल इस ब्रांच के एक जाने-माने ग्राहक की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। प्रधान खजांची, अखिलेश प्रसाद ने इस घटना पर शोक व्यक्त करते हुए कहा था-ईश्वर का भी कैसा विधान है, पापियों को मौज-मस्ती के लिए छोड़ देता है और भले आदमियों को उठा लेता है। काउंटर क्लर्क, गंगा मिश्र ने बात के निहितार्थ को भांपते हुए कहा-क्या कीजियेगा,घोर कलयुग है भाई ! जब जीवन-मृत्यु या कलियुग-सतयुग की बातें हो रही हों,तो राम सिंगार ऐसे मौकों पर कुछ बोलने से नहीं चुकता, एक दार्शनिक अंदाज में बोला-सब ठाट पड़ा रह जायेगा,जब लाद चलेगा बंजारा। ईश्वर सिंह चपरासी को कोई बात ज्यादा घूमा-फिरा कर बोलना नहीं आता, उसने खैनी रगड़ते हुए कहा-ई बतवा हमरा साहेब के केहु समझावे तब न।उसकी छपरहिया बोली पर सभी हँस पड़े थे। ऐन इसी वक्त पर राम सिंगार ने थोड़ी देर पहले साहब को आते देख ऊँची आवाज में सबको आगाह कर दिया था।
रायगंज कस्बे में स्थित बैंक के इस छोटे से ब्रांच में कुल मिलाकर छह-सात स्टाफ हैं।साहब यानी शाखा प्रबंधक यानी श्याम सुंदर सहाय।उन्हें यहाँ आये हुए अभी सिर्फ पाँच-छह महीने ही हुए हैं।इस शाखा में जब भी कोई नया प्रबन्धक आता है,यहाँ का मौसम अचानक बदलने लगता है। नये दांव-पेंच शुरू हो जाते हैं।
ईश्वर सिंह इस नये साहब के मिज़ाज से वाकिफ हो चला है। आते ही उपस्थिति पंजी माँगते हैं,फिर उन्हें चाय की तलब होती है,फिर बाकी कोई काम। आज उपस्थिति चेक करते हुए उन्होंने ईश्वर सिंह से पूछा-आज कौन-कौन नहीं हैं ? उसे मालूम था साहब पहले यही पूछेंगे। --मेहता जी और उदय बाबू , उसने सहम कर कहा। --दरखास्त ? कभी-कभी बिजली-सी कड़कती आवाज लगती है उसे साहब की। ईश्वर सिंह निर्भयता से हँसा--ई ब्रांच में दरखास्त ! ऐन वक्त चेंबर में उदय सिंह दाखिल हुए।आते ही सफाई दी-बच्चा बीमार है सर ! अभी लेकर डाॅक्टर के पास गया था। दिखला कर भागे-भागे किसी तरह आ रहा हूँ।--कोई बात नहीं आप तो आ ही गये,पर ये सत्य प्रकाश मेहता ?
उस दिन ब्रांच से साहब के निकलते ही गंगा मिश्र ने ऊँची आवाज में सबको सुनाते हुए कहा था- अभी नयी घोड़ी है न, चाल तो दिखायेगी। इस साहब ने भी अपने पूर्व के साहबों की तरह बहुत जल्द साबित कर दिया कि वाकई वह साहब हैं।एक दिन चेंबर में सबको बिठाकर बोले कि एक अच्छे मैनेजर का काम मैनेज करना है अर्थात काम करवाना। फिर उन्होंने कई सफल मैनेजरों के नाम गिनाये जिन्होंने खुद कभी कुछ काम नहीं किये थे।खुद अपना उदाहरण देते हुए भी कहा था कि महज दो साल में फास्ट ट्रैक से वह स्केल टू होकर यहाँ आ गये हैं। फिर उन्होंने बहुत अफ़सोस के साथ कुछ असफल प्रबंधकों के नाम भी लिए थे जो उनसे कहीं अधिक कर्मठ होने के बावजूद असफल रहे। दरअसल, उन्हें मातहतों से काम करवाने की कला नहीं आती थी। लिहाजा जहाँ वे थे, वहीं रह गये।
साहब की ओर से ईश्वर सिंह को इस बात की सख्त हिदायत है कि कोई भी आदमी दरयाफ्त करे उनके बारे में , सीधे कह दे- गये हैं फ़ील्ड विजिट में। रिकार्ड रूम में खूट-खूट की आवाजें हो रही थीं। राम सिंगार का यही टाइम होता है भाउचर सिलने का। लंच के समय पूरा दफ्तर खाली था।सब चाय पीने निकले हैं। ईश्वर सिंह को चाय की लत नहीं है। उसे बिलायती नशा कहता है। जबकि यदा-कदा भाँग का सेवन वह भी कर लेता है शिव जी का प्रसाद मानकर। उसकी मुखरता पीठ पीछे कुछ ज्यादा सक्रिय हो उठती है।आगे-पीछे देखकर बहुत धीमे स्वर में राम सिंगार से बोला--ई त जब देखो तब फील्ड विजिट में। नंबर वन का फाँकीबाज है रेऽ भइयवा ! इस बात पर राम सिंगार को हँसी छूट गई। वह भी यहाँ की रग-रग से वाकिफ है।बोला- सौतिया डाह बुझत हौ ? जब से उ साहेब से सटले ह, तबे से कुछ लोगन के करेजा पर साँप लोटे लागिन ह। राम सिंगार की इस बुझौव्वल से उसे गुस्सा आ जाता है।मन ही मन चिढ़कर बोला- सीधे काहे नहीं बोलते कि सिंघ जी और गंगा मिसिर के करेजा पर। --तोहरा में यही तो खराबी है,हर बात को उघाड़ देते हो, राम सिंगार ने नाराजगी जाहिर की। इस पर ईश्वर सिंह को और भी हँसी आ गई,चकित भाव से बोला-अरे त इसमें डरने की का बात है, हम कौनो झूठ बोलत है का ? तभी गेट खड़खड़ाने की आवाज हुई। देखा, मिसिर और सिंघ जी किसी बात पर हँसते-झुमते चले आ रहे हैं।
अमितेश्वर प्रसाद सिंह को सभी सिंघ जी कहते हैं।इस ब्रांच में एक मुद्दत से बड़े बाबू के पद पर विराजमान हैं।एक समय था जब शर्मा जी के समय में इनकी चाँदी थी।जब भवदेव शर्मा यहाँ के प्रबंधक थे,तो इनके आगे किसी की भी दाल नहीं गलने पायी। इनमें और गंगा मिश्र में शुरू से ही गजब की संगत रही है। दोनों बाबुओं की युगल जोड़ी इस ब्रांच में ईर्ष्या का सबब रही है। कनिष्ठ लिपिक -उदय सिंह ने बहुत जोर आजमाईश की पर इसे तोड़ने में विफल रहे । उन दिनों उदय सिंह चोट खाये साँप की तरह फुँफकारते रहते थे। हार-पाछकर युनियन के राज्य स्तरीय नेताओ से उन्होंने गंगा मिश्र की मौखिक शिकायत दर्ज की। दरअसल, वे दोनों एक ही युनियन के थे। मगर पता नहीं सिंघ जी ने उन्हें कौन सी घुट्टी पिला रखी थी कि वह टस से मस तक नहीं हुए। एकदम निस्पृह भाव से सारे प्रहारों को झेलते गये। उदय सिंह का उन पर साम दाम दंड भेद सब निष्फल रहा । गंगा मिश्र ने भी अंततः आजिज होकर युनियन के बड़े नेताओं को अपनी सफाई में तस्वीर का एक दूसरा ही रूख पेश कर दिया ,कहा--उन्हें तो सिर्फ गर्दिश में ही युनियन दिखाई पड़ता है।
यहाँ की राजनीति में सबसे ज्यादा पीसे जाते रहे हैं सत्य प्रकाश मेहता। स्वभाव से ही उल्टी धारा में बहते रहे हैं।जिंदगी को अपनी शर्तों पर अपने वसूलों के साथ जीने की कीमत सदैव चुकाते भी रहे हैं।यहाँ के उबाऊँ माहौल में साजिश, घुटन और रिक्तता के सिवाय उन्हें कुछ भी नहीं मिला है। अपनी अतिशय विनम्रता को यहाँ उनकी एक कमजोरी माना जाता रहा है।उन्हें सीधे किसी को ना कहने की आदत भी नहीं है।
कल दफ्तर से बाहर निकलते ही गंगा मिश्र ने उन्हें पुकारा।पास आकर कहा-आपसे कुछ बात करनी है।पीछे से तब तक सिंघ जी भी आ पहुँचे। सिंघ जी गंगा मिश्र को देखकर उनके कंधे पर हाथ फेरते हुए बोले-- इन्हें दीन-दुनिया से कोई मतलब नहीं।आइये चलते हैं, कभी-कभी तो हमें भी सेवा का मौका दे दीजिये । थोड़ी देर बाद बगल के एक होटल में बियर पीते हुए गंगा मिश्र ने अपनी बात शुरू कर दी। --आजकल जो खिचड़ी पक रही है ब्रांच में, कुछ पता है ? फिर खुद ही बोले- एडवांस छूट कर हो रहा है, पर किसी को नहीं बताया जाता। तो हम क्या घास गढ़ने आये हैं यहाँ ? बोलिए ? आप भी स्टाफ़ हैं । मर-मर कर काम करते हैं।क्या आपका कुछ हक नहीं बनता। बोलिए..कुछ तो जवाब दीजिये। सिंघ जी चेहरे पर एक मंद मुस्कान लिए खामोशी की चादर ओढ़े बियर सीप किए जा रहे थे। गंगा मिश्र ने अंतिम अस्त्र मेहता पर फेंकते हुए कहा--'वैसे भी आप मेरे युनियन में है। मेरा कुछ तो हक बनता ही है आप पर।' कुछ अप्रिय शब्द मेहता की जुबान तक आते-आते रूक गए थे। कहने से अपने आप को रोक लिए। सिंघ जी हौले-हौले नशे की तरंग में बहने लगे थे। हल्की लड़खड़ाती- लरजती हुई आवाज में बोले--जहाँ तक हक की बात है,भाई हक तो सबका है। तीसरा पैग बनाते हुए गंगा मिश्र ने एक रहस्यमय अंदाज में मेहता को देखा और कहा--आपको क्या नहीं लगता कि ये सरासर धांधली है।अन्याय का प्रतिकार अगर न हो, तो इससे बड़ी कायरता और क्या होगी? सिंघ जी मेहता की हथेली को अपनी उँगलियों से दबाकर जोर से हँसे। उसे सिंघ की यह हरकत पसंद नहीं आती। तनिक बेरुखी से अपनी हथेली को उनके चंगुल से आजाद कर लिया। उसे मालूम है, जब तक वह उनकी बातों पर हामी नहीं भर दे, सिंघ की उँगलियों की जकड़न कभी ढीली नहीं पड़ती। उसे लगा, यह सिंघ की नहीं, व्यवस्था की उँगलियाँ हैं ..एक आदमखोर के खूनी पंजों की तरह। भीतर से उसे तभी बहुत तेज हँसी का फव्वारा छूटा । वैसे उस पर भी कुछ सुरूर छाने लगा था पर उतना नहीं। फिर भी, उसने नशे में अतिशय धुत होने का अभिनय किया।उसे लगा, अभी इसका भरपूर मौका भी है और दस्तूर भी । लड़खड़ाती जुबान से बोले--अच्छा , तो आपलोग बराबरी का हक लेना चाहते हैं.. और उस लड़ाई में मुझे भी एक मोहरे की तरह चलने का मंसूबा रखते हैं। क्यों, यही बात है न ? उसने फिर एक अट्टहास किया। गंगा मिश्र को मेहता की यह हरकत कुछ अच्छी नहीं लगी। थोड़े चिंतित हुए ,इसे कहीं चढ़ तो नहीं गया। इस तरह की पागल हँसीं से गंगा मिश्र को भय लगता है। जैसे,हँसते-हँसते कोई शख्स किसी का गला घोटने लगे। उसने धीरे से सिंघ को इशारा किया--अब चलिए भी,बहुत देर हो गयी।--अरे सरकार ! इतनी जल्दी भी क्या है, कहकर मेहता ने इस बार सिंघ की हथेली को अपने हाथों से कसकर दबाया। सिंघ जी को मेहता की यह हरकत एकदम नागवार लगी। मिश्र को तत्क्षण संकेत से चलने के लिए कहा।
होटल के बार से बाहर आकर मेहता को राहत मिली।यह गर्मियों की एक उमस भरी रात थी। सड़क पर कोई चहल-पहल नहीं थी।एक तरह से सन्नाटे का आलम था।मेहता सड़क के किनारे लघु-शंका से निवृत्त होकर जब लौट रहे थे, एक फुसफुसाने की आवाज सुनाई पड़ी-अब संभालो इसे, लगता है बहक गया है।गंगा मिश्र सिंघ के कानों से सटकर खड़े थे। --यह किसी काम का नहीं ; मैं अच्छी तरह जानता हूँ, सिंघ ने पूरे यकीन से इस बात की तस्दीक़ की। मेहता को अकस्मात तेज गुस्सा आया,उसने हवा में तेज गति से हाथ भांजते हुए अपना सांकेतिक विरोध जताया। पर उन्हें लगा,मेहता ने नशे की हालत में मानों हवा को नहीं बल्कि उन्हें ही एक मुक्का जड़ दिया हो। सिंघ जी ने त्वरित आवेश में कहा- क्या बला है ,मिसिर भाई ! कोई रिक्शा देखो जल्दी। पूरा आउट है !




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