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आसान और कठीन
हमारे लिए कोई भी चीज़ कब आसान और कठिन हो जाती है ? मैं अपनी अनुभव आपलोगो के साथ शेयर करना चाहतीं हूं! मैं यदि पुछु आपलोगों में से कितने को लूडो छक्का खेलने आता है? आपलोग कहेंगे ये कोई सवाल है?ये तो सबको आता है! बच्चे, बड़े सभी खेल लेते हैं और खेलते भी है!
लेकिन आज तक मुझे लुडो का खेल पल्ले नही परा है !मुझे ये खेलने आया ही नहीं आज तक! आप में से कई लोग सोच रहे होंगे ये बकवास कर रही है , कईयों को लगेगा कहानी बना रही है! क्योंकि लोग विश्वास नहीं करते हैं; यदि कोई हमे खेलने कहते हैं और मैं मना कर देती हूं ये बोलकर की मुझे नही आती हैं! कभी कभी वो कहते है खेलों तो सही हम सीखा देगें! बैठे हैं कभीकभर पर पल्ले नहीं परा क्योंकि मुझे इसमें रुचि नहीं है!अगर मुझे कुछ ज्यादा बोरिंग लगा है तो वो है लूडो ! मैं दूर ही भागती हूं इससे ! मुझे बहुत कठिन खेल लगता है! लेकिन सब ये कहते हैं की इसमें कुछ नहीं है! सब ये भी कहते हैं कि खेलने में मजा आता है! गर्मियों में मासी, मम्मी पूरे दोपहर खेला करती है इतना ही नहीं खेल खेल में तू तू मैं मैं भी हो जाता हैं!
सोचती हूं शायद मुझे ये खेल इसलिए कठिन लगता है कि मुझे इसमें रुचि नहीं है! अर्थात् आप जिस काम में रुचि रखते हो आप वही बार बार करते और वो आपके लिए आसान हो जाता है जबकि जिस काम में हमे रुचि नहीं होती है वो हम करना नहीं चाहते हैं इस प्रकार वो चीज हमारे लिए कठिन होते जाती है!
आसान और कठिन कुछ नहीं है ये सब हमारी मनसा पर निर्भर करती है कि हम किसी काम को कितनी सिद्दत से करते हैं,हमारी कितनी अभिरुचि है!

मैं कोई लेखक नहीं हूं और न ही मैं लिखने के तौर तरीके जानती हूं!
बस ये मेरा खुद का अनुभव है जो आपलोगो को इस कहानी के जरिए बताना चाहे!
कुछ भूल या गलतियां माफ़ कीजिएगा बच्ची समझ कर!

आपके अहम वक्त के लिए
धन्यवाद!


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