...

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बिसरी गलियां
मेरा शहर मुझसे मेरी पहचान पूछ रहा था और मै अपने शहर से पूछ रही थी अपने घर का पता ...
कुछ सकुचाती सी मेरी आंखें हर गली को बड़े गौर से देख रही थीं ...
कि शायद ये वाली गली हो जो मुझे मेरे घर तक पहुंचा दे ...?
आई भी तो एक अरसे बाद थी।
बारहा समय का अन्तराल बहुत कुछ बदल देता है ..जिसका अंदाजा शायद  मुझे नही था।
एक बेचैनी ...एक बेबसी ..मेरे अंदर घुली जा रही थी।
खुद पर झल्लाहट भी हो रही थी ...

और मै?
यादों का एक सफ़र मेरे भीतर कुछ खुरच रहा था ..
एक बेबसी आंखों मे डब डब उतर रही थी ..समय की परतें सारा भूगोल गड़बडा देतीं हैं ये एहसास होठों पर कंपकपाहट बन बार -बार उभर रही थी ..
आख़िरकार कई लोगों से पूछते पूछते घर मिला ..
दिवारों को मैने छुआ ..
एक अजनबियत का एहसास ..
मानो दीवारें मुझसे पूछ रहीं हों
कौन हो तुम?
मैने उन्हें कुछ याद दिलाने की कोशिश की पर 
शायद दीवारें मेरे स्पर्श को भूल चुकी थीं ..
वो दिवान,जिस पर मै बैठी थी,  वो कुर्सियां वो घर, कमरे...
थोड़े बहुत बदलाव के साथ सबकुछ तो वही था पर इतनी अजनबियत क्यों थी?
एक घुटी घुटी सी रुलाई का कतरा मेरे गले मे दर्द बन बैठा जा रहा था..
समय की बाजीगरी मे क्या सबकुछ इतना धुंधला  हो जाता  है कि साफ-साफ देखने के लिए बार-बार आंखें पोछनी पड़े?
अपने ही घर मे मै कुछ घंटों की मोहताज कुछ घंटे बीता वापस आ गई थी...
एक डंसती हुई खामोशी के साथ ...
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