...

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सुलभ सुंदरी
ढलती शाम के साथ सबके दरवाजे बंद हो रहे थे। ठंड बढ़ रही थी, कि उसने अपने छज्जे पर जोर की अंगड़ाई ली। मुहल्ले भर की राख होती अंगीठियों में मानों किसी ने जवानी का कोयला झोंक दिया हो।
साल और कंबल में दुबके सभी भूतपूर्व और अभूतपूर्व युवा बरामदों में कुर्सी डाले उसकी नृत्य भंगिमाओं को निहारते रहते। रियाज पूरा होने पर वो तो पसीने-पसीने हो जाती मगर कम्बख्त ठंढ के मारे सबके सीनों में कफ़ जम जाता।
न वो मानती न ये खाँसते खूसट।
मजबूरन उस आफत से इनको राहत दिलाने के लिए कि वो रियाज कमरे में करे, कहने चला गया। उसने कमर से पकड़कर कमरे में ले लिया।
.....और तबसे कमर को तकलीफ़ भले हो रही है, मगर हम दोनों का रियाज़ कमरे में ही होता है...... और वह बंद रहता है।
© drajaysharma_yayaver