...

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चमक
मैं हसीनाओं की चमक से अनजान नहीं था। मगर उसका यूँ दरवाजा खोलना, मुझे भेद सा गया।
वो अकेली ही थी, छोटे से तौलिए के पीछे।
जो उसने मुझे अंदर खींचते ही गिरा दिया था और युगों की प्यासी नागिन सी मुझे जकड़े थी।
मर्द था!!
मेरा भी भुजंग फन फैलाए था। मगर उसके होंठ भी नेवले से कम नहीं..., दाँत भर नहीं लगाया!
....मगर आँत तक गहराई में गटक गई।
हाय! वो दोपहरी आज भी, शरीर को चूर-चूर कर देने वाली कसक जगाती है।
हम मिलते हैं, मगर मिलते ही हमारी आँखें चमक जाती हैं।
© drajaysharma_yayaver