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पढ़ाई: कल और आज
एक शिक्षिका, एक लेखिका और एक मां होने के नाते, मैं ये अक्सर सोचती हूं कि क्या हम बच्चों के साथ, पढ़ाई के नाम पर अत्याचार, छल नहीं कर रहे? ये कैसी पढ़ाई जिसके चलते बच्चों से उनका बचपना छीना जा रहा है। आज कल तो हाल ये है कि बच्चा ठीक से 'मां' भी नहीं बोल पाता कि हम उसे Creche या फिर यूं कहें कि आंगनवाड़ी छोड़ आते हैं अपनी सहूलियत के लिए। हम ये भी नहीं सोचते कि बच्चों के सब से पहले शिक्षक उसके अभिभावक ही होते हैं जिन्हें देख,सुन कर बच्चे बड़े होते हैं। और अब तो दौर Online Classes का जो़रों पर है,ज़रा कुछ हुआ नहीं कि मां बाप कहते हैं, Google पे search कर ले बेटा। दरअसल हमें ख़ुद उनको अपने सामने बैठा कर, उदाहरण के साथ समझाना चाहिए। पर हम में से कितने ऐसे हैं जो ऐसा करते हैं? शायद बहुत कम। मसला यहां ये नहीं है, मुद्दा ये है कि बच्चों की पीठ पर भारी भरकम बैग लाद कर हम उन्हें शारीरिक तौर पर ही नहीं, बल्कि मानसिक तौर पर भी बीमार कर रहे हैं। आज कल बच्चों का बैग उनके शरीर के वज़न से दुगना लगता है। हर पल पढ़ाई की झिकझिक। मतलब दुनिया में ऐसे कई देश हैं जहां पढ़ाई होती है और वो भी बिल्कुल बच्चों की सहूलियत को ध्यान में रखकर। न कि उन पर होमवर्क का दबाव डाल कर उनसे उनकी मासूमियत और बचपना को छीन कर।
अब आप में से कुछ अभिभावक कहेंगे कि हमने भी ऐसे ही पढ़ाई की,इसी प्रक्रिया को अपना कर ज़िंदगी में इस मुकाम तक पहुंचे हैं।
तो मैं उनसे बस इतना कहना चाहूंगी कि मैं ये कतयी नहीं कहती कि बच्चों को पढ़ाई से दूर करिए, बल्कि मेरा मानना ये है कि पढ़ाई के तरीके को क्यों न मजे़दार बनाया जाए जिससे एक पंथ दो काज हो जाए। मतलब पढ़ाई की पढ़ाई और मस्ती की मस्ती। हर बच्चे में ईश्वर का वास होता है, उन्हें पहचाने और उनको सहयोग दें कि वो पढ़ाई को बोझ न समझें बल्कि समाज में और ख़ुद में बदलाव लाने का एक जरिया समझें। फिर देखिए बच्चे कैसे ख़ुशी ख़ुशी हर रोज़ स्कूल जाते हैं और अपना काम कैसे मन लगा कर करते हैं। ज़रूरत है तो हम जैसे अभिभावक और शिक्षकों को कि हम अपने तरीके में थोड़ा बदलाव लाएं और पढ़ने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करें, न कि उन पर दबाव डालें।
आशा करती हूं मेरे इस लेख से थोड़ा बदलाव आए लोगों की सोच में।

धन्यवाद।
© Aphrodite