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रक्षाबंधन - एक बहन के स्वाभिमान का सूत्र


इस बार मैं राखी खरीदूँगी ही, और वो भी रेशम के उन धागों से जिसमें चन्दन जैसे मोती लगे हों... हर साल की तरह वो रेशम के धागों को लपेट लपेट के माँ मोटा करके दे देती थी, वो ही बांधती आई हूँ... इस बार, डोरी पे गोटे वाली चमचमाती सी एक और डोरी उसको लपेटे सहारा दे रही हो... ऊपर एक ॐ का निशान बना लकड़ी का गोल टुकड़ा होगा, जिसके नीचे सहारा देता रुई जैसा कुछ लगा हो... मेरे भाई को कोई चीज़ चुभ न जाये...

मेरे बाबू जी एक पाठशाला के अध्यापक थे, आस पास के 10 गाँव में अकेले गणित और अंग्रेजी के टीचर... भाई भी उन्हीं की क्लास में पढ़ता था...

वैसे गाँव का स्कूल था ही कितना बड़ा, बस वो रज्जन चाचा के आम के पेड़ की छाँव से थोड़ा बड़ा...

हमारा घर छोटा था... आप सब हँसोगे मेरे पे... वो झोपड़ा था एक छोटा सा...

बाबू जी केवल इज़्ज़त ही कमा पाये थे, और गाँव में फैला हैज़ा और उनके परममित्र हकीम साहब की देसी दवाइयाँ उनको बचा न सकीं... मैं बहुत रोई थी, 9 साल की थी तब...

भाई बड़ा था, बारहवीं पास किया ही था... बाबू जी कॉलेज में दाखिले के लिए समझा रहे थे...

बाबू जी - कॉलेज का जीवन, नई उमँगो का जीवन होता है बेटा, अब तुम बड़े भी हो गए हो और समझदार भी... क्या बनना चाहते हो आगे चल कर...

भाई - बाबू जी, जैसे आपने अपना पूरा जीवन गाँव की सेवा में दे दिया, वैसे ही मैं भी डॉक्टर बनकर सेवा ही करूँगा...

भाई ने शहर जाकर, पढाई के बाद जो करते हैं ना, 4 घंटे की नौकरी कर ली... अस्पताल में काम करते थे भाई हमारे... लोगों का पर्चा बनाते थे और उनको जिस डॉक्टर साहब के पास भेजना होता था, वो भी भाई ही बताते थे...

बाबूजी की तबियत के वक़्त बहुत कहा की अस्पताल में भर्ती हो जाइये, पर पैसों का बोझ कभी कभी जीवन के बोझ से भी भारी होता है... मेरी पढाई भी बीच में ही छूट गयी थी... माँ का हाथ बटाने वाला कोई था ही नहीं फिर और बाबू जी के जाने के बाद बीमार और चिड़चिड़ी भी हो गयी थी... पैसे की तंगी और बटाई का खेत बस आधा पेट खाना ही दे पाता था...

अब भाई जूनियर डॉक्टर बन गए हैं...

इसी साल बहाली हुई तो उन्होंने पहली तनख्वा से घर कुछ पैसे भेजें...

फिर...

इसी साल बारिश आने से पहले छत पक्की वो खुद करवा के गए थे...

3 साल की पढाई छुट गयी थी, तो स्कूल चल कर दाखिला भी करवा दिया दोबारा...

माँ के लिए एक आटा चक्की भी बनवा दी, बैंक से क़र्ज़ लेकर... तो अब वो भी थोड़ा काम में व्यस्त रहती है तो चिड़चिड़ी नहीं होती...

इस बार रेशम की राखी बाँधूँगी अपने भाई को...

माँ भी अजीब ही है मेरी... बोल रही है, ॐ वाली न बाँधो राखी... उनके यहाँ नहीं पहनते हैं ॐ वगेरह... कोई फूल वगेरह की बाँध दो...

मैं तो ॐ वाली ही बाँधूँगी... चाहे माँ कुछ भी कहे...

भाई के अम्मी अब्बू गाँव के रसूखदार लोग हैं... भाई को पढ़ाने और डॉक्टर बनाने में बहुत खर्च किया उन्होंने...

पर मुझे कभी ये एहसास नहीं होने दिया की हम हिन्दू और वो मुस्लमान हैं...

अभी हमारा गाँव इस साम्प्रदायिक चोंचलों से बचा हुआ है...

मेरा भाई, अपने मरीज़ों का खुदा हो... मेरा तो वो राम है...

इस बार मैं रेशम की ही राखी बाँधूँगी... वो भी "ॐ" वाली...

© सारांश