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Praise others World Compliment Day
*World Compliment Day*

*विश्व प्रशंसा दिवस*

लो जी।! यह दिवस भी एक विशेष दिवस की सूची में आ गया। यह इस बात का प्रमाण है कि विश्व के कुछेक बुद्धिमान लोगों ने मनुष्य के मन के गहरे तलों को समझा और आखिर यह प्रशंसा दिवस ना केवल राष्ट्र प्रशंसा दिवस तक ही सीमित रहा बल्कि इस प्रशंसा दिवस को विश्व प्रशंसा दिवस मनाने का भी निर्णय भी ले ही लिया गया। विश्व के कई देशों में 01 मार्च विश्व प्रशंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

हो सकता है कि कुछ लोग यह भी सोचें कि यह भी कोई मनाने के लिए दिवस है! इस दिवस को मनाने की क्या जरूरत है या क्या जरूरत थी इस दिवस को सेलिब्रेट करने की? ये सब व्यर्थ फालतू बातें हैं। लेकिन, नहीं। ऐसा सोचना एक संकीर्ण मन की सोच है। गहरे में देखने समझने वाले बुद्धिमान लोग इसके पीछे के मनोवैज्ञानिक मर्म को जानते हैं। प्रशंसा करना अर्थात् गुणों को देखना। गुणों को देखना अर्थात् गुणग्राही दृष्टि का होना। गुणग्राही होने का अर्थ केवल यह नहीं कि गुणों को देखना और भावाव्यक्ति कुछ नहीं देना। नहीं। गुणग्राही होने का केवल यह मतलब नहीं। गुणग्राही दृष्टि तब पूर्णतः गुणग्राही बन जाती है जब वह मन, वचन और कर्म (कर्म व्यवहार में) तीनों में खरी उतरती है। प्रशंसा करने का भावार्थ है कि आप सृजनात्मक हैं और दूसरे व्यक्ति को भी सृजनात्मक होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। प्रशंसा करने का भावार्थ है आप दूसरे व्यक्ति के गुणात्मक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। प्रशंसा करने का अर्थ है कि आप दूसरे व्यक्ति की गुणात्मक ऊर्जा को ऊर्जा देते हो और उसे अधिकाधिक सक्रीय करते हो।

इसी संदर्भ में हमें विषय को समझने के लिए अपने दूर अतीत में लौटना होगा। तभी हम इस विषय को और भी ज्यादा स्पष्ट समझ सकेंगे। अतीत हमें यह बताता है कि यह गुणों को देखने और गुणों की प्रशंसा करने की वृत्ति बहुत पुरानी है। यूं कहें कि आदि काल से ही है। मनुष्य की चेतना में परिवर्तन होने के कारण पिछले ढाई तीन हजार से वह प्रायः लोप हो गई है, वह बात अलग है। पर है यह अभिवृत्ति आदि काल की बहुत पुरानी ही। गुणों को देखना और गुणों की प्रशंसा करने के गुण की प्रैक्टिकल अभिव्यक्ति के लिए हमारे सबसे बड़ा जोरदार उदाहरण है श्री कृष्ण का। श्री कृष्ण की आत्मा में गुणग्राहक दृष्टि (अभिवृत्ति/एटीट्यूड) कूट कूट कर भरी हुई थी अर्थात् उनकी दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक दृष्टि थी। उनकी दृष्टि केवल सारांश, उपयोगी, सृजनात्मक और सकारात्मक को ही देखने वाली नेचुरल दृष्टि थी। उनकी इसी अभिवृत्ति के कारण ही उनका तो संकेतात्मक रूप वाला नाम ही पड़ गया "मक्खन चोर"। माखन का अर्थ होता है एसेंस (सारांश)। मक्खन का अन्यान्य मनोगत व्याहारिक भावार्थ होता है कि किसी भी विषय वस्तु या व्यक्ति में कुछ ऐसा जो शक्तिशाली, सृजनात्मक, बहुमूल्य और उपयोगी हो। मक्खन चोर का अध्यात्मिक अर्थ होता है गुण चोर। श्री कृष्ण को मक्खन चोर कहकर प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करते हुए उनकी गहरी विशेषता अर्थात् विशेषण को बताया गया है। बाकी श्री कृष्ण के समय में श्री कृष्ण के लिए मक्खन आदि के खानपान सब अकीचार रूप में उपलब्ध थे। उस समय श्री कृष्ण को मक्खन आदि की कतई कमी नहीं थी। यह विशेषण...