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ज़िम्मेदारी
* जिम्मेदारी*

"जिम्मेदारी" तो हम सभी की थोड़ी-थोड़ी या कहीं-कहीं बहुत ज्यादा होती है। किसी काम की शुरुआत से लेकर अंत तक हर व्यक्ति की उसमें अहम भूमिका होती है। सही कहें तो, जन्म से अंत तक भी जिम्मेदारी खत्म नहीं होती ।मगर, कुछ लोग भागते हैं, अपनी भूमिका अदा करने में ।यह कहानी, ऐसे ही चंद लोगों पर आधारित है ।उम्मीद है आप सभी को पसंद आए।🙏

* जिम्मेदारी*
"देखो माया यह बच्चे हमारी "जिम्मेदारी" है हमने जन्म दिया है। इस बात को तुम कब समझोगी ।आखिर मम्मी पापा से यह नहीं संभलते हैं ।समझा समझा कर थक गया हूं तुमको ।यह बात समझ नहीं आती है क्या"?

गुस्से में आग बबूला मयंक माया पर अपना गुस्सा निकल रहा था। माया चुपचाप उसकी बात सुन रही थी और बगल के कमरे में ही मयंक की मां गीता देवी मुस्कुरा रही थी।
मयंक और माया एक मध्यम परिवार के जिम्मेदार व्यक्ति हैं । दोनों की कमाई से भी बड़ी मुश्किल से घर चला कर कुछ सेविंग हो पाती है। जिसे घर की अन्य जरूरतों पर खर्च किया जाता है।

मयंक की कोई स्थाई नौकरी नहीं है। काम मिला तो कर लिया नहीं तो कुछ नहीं। लेकिन माया की एक कंपनी में स्थाई नौकरी है। उसे हफ्ते में 5 दिन काम करना है और खाना भी वही मिलता है। लेकिन 9 घंटे सुबह 9:00 से शाम 6:00 बजे तक वहीं रहना होता है। शादी के बाद भी ठीक ही चल रहा था ।माया सुबह 5:00 बजे उठकर 8:30 तक घर के सारे काम खत्म करके ऑफिस जाती है और शाम को आते ही फिर रात के 11:00 बजे तक सभी काम करती थी। हां कभी-कभी मयंक कर लेता है ।लेकिन यही बात उसकी मां गीता देवी को बहुत बुरी लगती है। बात-बात पर वह माया से भी इस बात के लिए तानाकशी करती रहती। इसी तरह खींचातानी में कब 2 साल बीत गए और माया दो जुड़वा बच्चों की मां बन गई शुरुआती 6 महीने तक ऑफिस वालों ने ही खुद छुट्टी दे दी थी। फिर माया को वापस ऑफिस जाना था इस बात पर ही गीता देवी ने घर में आतंक मचा रखा था।

माया बहुत समझदार और सुलझी हुई लड़की थी। वह सब जानती थी, जानता तो मयंक भी था लेकिन, वह मानता नहीं था कि माया की कमाई से ही घर चल रहा है ।उसकी मजबूरी रोज नहीं होती है। फिर घर खर्च के अलावा मां की दवाई और अब दो बच्चों की परवरिश। उसे घर के काम से कोई फर्क नहीं पड़ता था लेकिन बदले में उसकी मां ही उसे जोरू का गुलाम और औरत की कमाई पर पलने वाला नामर्द करार देकर उसे ताना मारा करती थी ।कई बार माया और मयंक में हाथापाई भी हो जाती थी ।लेकिन माया जहर का प्याला पीकर भी जिम्मेदारी से नहीं भागी ।

माया के ससुर श्री शंकर प्रसाद इस विषय पर माया के साथ थे ।अपने घर की स्थिति और उससे निपटने के लिए उन्होंने माया के साथ मिलकर एक उपाय किया ।अपनी युक्ति चुपचाप माया को बात कर वे उससे बात नहीं करने का नाटक करने लगे।

शंकर प्रसाद से गीता देवी ने कहा "आप तो कुछ कहते नहीं बहू कितना सर चढ़ गई है । दो बच्चों को हम कैसे संभालेंगे ।मुझ से तो अब कोई काम नहीं होता है"। शंकर प्रसाद मुस्कुरा के चुप रहे।

दूसरे ही दिन माया ने मयंक और सास ससुर को साथ बैठकर कहा कि ,उसने नौकरी छोड़ दी है ।अचानक नौकरी छोड़ने पर उसे वहां जमा राशि नहीं मिली और अब वह नौकरी नहीं करेगी। साथ ही उसने घर के सामान की लिस्ट और बच्चों के सामान की लिस्ट भी थमा दी।
अपनी बात बनती देख गीता देवी बहुत खुश हुई,मगर मयंक के चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था।

जब माया नौकरी कर रही थी तब वह घर के सारे काम खुद ही करती थी। यहां तक की सब्जी सुधारने को भी सास ससुर को नहीं देती थी मगर, आजकल वह बच्चों के साथ ही रहती थी। सिर्फ़ दाल बना कर आटा लगा देती थी। जिसे खानी हो वह रोटी बना कर खा लेगा। लेकिन उसकी सास के अनुसार बहुत अपनी जिम्मेदारी निभा रही है। मयंक के पास भी कोई काम का बुलावा नहीं आया उसने मां से कहा "मुझे पैसे चाहिए माया की नौकरी नहीं है ।आपकी दवाई और रसोई का सामान लाना है"।

हफ्ते 15 दिन तो मां पैसे देती रही और घर का काम भी करती रही ।फिर एक दिन माया के पास गई और बोली "अपनी हरकत पर में शर्मिंदा हूं मैं भूल गई थी कि जब अपने बच्चों को मैं बड़ा किया था तब कितना सहयोग था मेरे ससुराल और प्यार वालों का महंगाई के इस दौर में पति-पत्नी का कमाना जरुरी है और बच्चों के लालन-पालन में दादा-दादी नाना नानी का सहयोग जरूरी है तभी उनकी संस्कृत परवरिश होगी वरना बच्चे सिर्फ पाले ही जाते हैं। मयंक की आय के ज्यादा स्तोत्र नहीं है ।तुम्हारी नौकरी उससे कई गुना अच्छी है यह बात मुझे चुभती रहती है। इस कारण से मैं मयंक और तुम्हारे बीच विवाद करवा कर तुम्हें झगड़े करवाती हूं ।लेकिन बीते 15 दिनों में मैंने अपने बेटे को हर दिन मर मर कर जीते देखा है ।
जब तुम्हारी नौकरी से तुम दोनों का ग्रस्त जीवन अच्छा चल रहा है और एक दूसरे का सहयोग पर तुम दोनों जिम्मेदारी वह खूबी निभा रहे हो तो, मुझे भी इसमें अपना सहयोग देना चाहिए और अपने परिवार को सुचारू रूप से चलने के लिए अपनी जिम्मेदारी उठानी चाहिए इसलिए, तुम मुझे माफ कर दो और अपनी नौकरी फिर से शुरू कर लो। मैं और तुम्हारे पापा साथ ही मयंक हम सब बच्चों को संभाल लेंगे ,और अगर किसी रोज बच्चे परेशान रहेंगे तो उस दिन तुम आधे दिन की छुट्टी कर लेना।
गीता देवी की आंखों में पश्चाताप के आंसू थे ,और पास ही खड़े शंकर प्रसाद मधुर मधुर मुस्कुरा रहे थे क्योंकि ,उनकी और माया की तरकीब सफल हो गई थी।
परिवार के सभी लोग अपनी-अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जिम्मेदार हो गए और घर में फिर से खुशी की लहर दौड़ गई। तीन साल के होते ही बच्चों को नर्सरी स्कूल में एडमिशन करा दिया गया ।अब गीता देवी घर के काम में भी माया की मदद करती है और सभी लोग खुश है।

अपने देश, मोहल्ले और परिवार में भी हम सभी की अपनी-अपनी भूमिका और अपनी-अपनी जिम्मेदारी होती है।यदि सभी लोग सजगता पूर्वक अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे तो , ना आर्थिक तंगी होगी ना ही कोई दुख होगा और साफ सफाई भी रहेगी ।सभी के सहयोग से सभी का जीवन आनंद पूर्वक बीतेगा, इसलिए हम सभी को अपनी-अपनी जिम्मेदारियां को समझ कर उसे निभाना चाहिए ।
यह कहानी आप सभी को कैसी लगी कृपया कमेंट में जरूर बताएं।🙏

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