...

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मनो:गुण न तत्र।
न मनः
मनुष्यः यथा इच्छति तथा ढालितुं शक्नोति
द्वेषः, प्रेम, पूर्णः, अपूर्णः
इत्यादि।
शिव ब्रम्ह से मनुष्य के मन की इच्छा बताते
मनुष्य प्रेम नहीं जाने हर बार उलाहना करे
देव को दोषी बताए
बनाया ही क्यू मानुष क्या इच्छा
ब्रम्ह देव मुस्काय बोले
मनुष्य को मन दिया
जिसे वॉ किसी भी रुप में ढाल स्कता हैं
अब जैसे मनुष्य की इच्छा हो वैसे
तभी शिव मन को पह्चान करने साधना में लगे
ध्यान से मन को पाया
प्रफुल्लित हो उत्साह से नृत्य कर इस मन को बताया
जग दीन भाव क्या ही बताए
ये मन स्वभाव जो दीन कहलाय
शिव जग में जो शांत कह्लाय
उन्होने अपने मन को जान
जग से नश्वर भाये
क्या करोगे जान कर हर जवाब को जान
ये भी गिर कर बहा रहा था हर जवाब
क्या चाह्ह्ते हो किस कारन बैर बन रहा
अपने हिसाब का कुछ नहीं कर पा रहा
या मन का कुछ हो नहीं रहा
अपने आप को सम्भालना हैं या
ओरो को उनका भाव बताना है
कोई रहना जरुरी हैं क्या किसी के पास
किया था क्या एक ओर अपने सफर का चाव
थम जाना बेहतर होगा अब
इसने बढाया ही आखिर हर विचार
हर पल का खूबसूरत जाने के बाद ही मह्सूस कराया चाहे
अखिर भुला तो नहीं पाए
बस यही
हर पल जीवन का याद रहे आये हँसी लेकर हर वक्त
सिखाया हुआ याद दिला जाए पर दुबारा कमजोर ना हो इस बार मन
मजबूत बना जाए आकर
खुद से प्रेम कर लिया आखिर
© 🍁frame of mìnd🍁