...

48 views

आत्ममंथन
कभी जीत है तो कभी हार भी। परन्तु कुछ हार में इंसान उठ नहीं पाता उसे हारा हुआ पल ही याद आता है हमेशा मैं अपने आप से सवाल जवाब करती रहती हूँ कि आखिर वो पल जीवन में आया ही क्यों?
ऐसे न जाने कितने सवाल है, जिनको खोज पाना भी इंसान की बुद्धि के परे है।
कहते हैं जहाँ अच्छाई है, वहां बुराई भी है, परंतु बुराई आजकल ज्यादा ही है, जहाँ देखो बस दिल दुखाने वाली घटना घट रहीं हैं। मुझे लगता है इंसानों को समझने में मुझे काफी वक्त लग रहा है वस्तुतः इंसान है क्या??
मैंने विज्ञान विषय पढा है किन्तु मनोविज्ञान विषय में ज्यादा रुचि होने लगी है मेरी।
हमेशा कोई डर फिर एक नया डर फिर डर पर डर लगा रहता है, जबकि पैदा होने के समय न तो डर था न शर्म थी
ये सब बड़े होने के साथ साथ हममें ये डर और शर्म पनपने लगा है।
किताबों में लिखा है, सब धर्म एक है परंतु बड़े होते ही सामाजिक बनते ही हमारी धर्म की परिभाषा बदल जाती है ।
आजकल जब भी बुरे विचारों वाले लोग तर्क वितर्क करते हैं तब उन तर्क वितर्क से जो निकलता है वो सिर्फ बुरा ही होता है।
आज मैं ये सब इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि जब भी कोई दुखद घटना घटते देखती हूँ या फिर कोई बुराई फैलते हुए देखती हूँ तो मेरा मन पूरी तरह आहत हो जाता है । ऐसा लगता है कि पृथ्वी का प्रलय निकट है क्योंकि हर एक चीज की सीमा होती है और सीमा के बाहर जाते ही उसका अंत निश्चित है।



© Anki