...

1 views

चार साहिबजादे: धर्म और बलिदान की अद्वितीय कहानी
यह कहानी बता रही हैं कि अगर इतिहास बदल सकता, तो वजीर खान को अपने गुरुर, अभिमान और ताक़त का सही प्रयोग करना सिखाता, ताकि साहिबज़ादों और बंदा बहादुर जी जैसे वीरों पर आए अत्याचार को रोका जा सकता और हिन्दू-मुसलमान के बीच बने फर्क को मिटाया जा सकता। आप इस कहानी को पढ़ते हुए भी आज भी भावनाओं में संवेदनशीलता को महसूस कर रहे होंगे और यह कहानी सभी को वीरों के साहस और बलिदान के प्रति अवगत कराने का उद्देश्य रखती हैं। आपने यदि इस कहानी में कोई गलती का अनुभव किया हो, तो आप मुझ माफ करें।

गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में 05 जनवरी 1666 को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गए थे। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था वही उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये थे। 1670 में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। चक नानकी ही आजकल आनंदपुर साहिब कहलता है।

उनका परिवार आनंदपुर साहिब में एक धार्मिक और सामरिक समुदाय के साथ बसा था, जहां वह नैतिकता और आध्यात्मिकता के मूल्यों को बढ़ावा देते रहे। गोविंद जी ने अपने जीवन में शांति, क्षमा, और सच्चाई का पालन किया। उनकी शिक्षा ने उन्हें एक उदार और सजग व्यक्ति बनाया।

उनका संदेश था कि समृद्धि और खुशी धार्मिकता के माध्यम से ही मिल सकती हैं, और व्यक्ति को समाज में एक सकारात्मक योगदान देना चाहिए। उन्होंने शिक्षा का महत्व जागरूकता फैलाने के लिए भी माना और अपने अनुयायियों को नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पित रहने का संकल्प किया।

गोविंद जी का जीवन प्रेरणा स्रोत बना रहा है, जिससे हम सभी शिक्षा, धरोहर, और सद्गुणों को अपने जीवन में अपना सकते हैं। उनके नैतिक आदर्शों ने समाज को एक मजबूत और समृद्धिपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान किया है।

काश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध और स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण, औरंगजेब ने 11 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात, वैशाखी के दिन 29 मार्च 1676 को, गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। यह वाक्य बताता है कि उन्होंने गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद भी धर्म, शिक्षा, और सामाजिक मूल्यों के प्रति समर्पित रहकर अपने जीवन को आगे बढ़ाया।

गुरु गोविन्द सिंह ने अपने गुरु बनने के बाद भी शिक्षा को महत्वपूर्ण माना और अपने अनुयायियों को लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी, और धनुष चलाना जैसे कौशलों का सीखने का मौका दिया। उन्होंने 1684 में 'चंडी दी वार' का रचनात्मक योगदान दिया, जो एक महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ है। 1685 तक, वह यमुना नदी के किनारे पाओंटा में रहे और वहां अपनी शिक्षा और साधना का केंद्र बनाए रखा।

गुरु गोविंद सिंह न केवल विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, बल्कि वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक, और संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की जो धार्मिक, सामाजिक, और साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे।

उन्होंने विद्वानों के संरक्षक के रूप में कार्य किया और उनके दरबार में आने वाले 52 कवियों और लेखकों को समर्थन और प्रोत्साहन प्रदान किया। इसके कारण उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था, जो एक साधु और एक सैनिक का मिलन है। उनका दरबार एक ज्ञान केंद्र था जहां विचार विमर्श, कला, और साहित्य के क्षेत्र में आदर्शों का बहुमुखी विकास होता था। गुरु गोविंद सिंह भक्ति और शक्ति के अदितीय संगम के प्रतीक थे।

गुरु गोविंद सिंह ने सदा प्रेम, एकता, और भाईचारे का संदेश दिया। उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, और सौम्यता से किसी भी प्रतिघातक को परास्त कर दिया, जो गुरुजी का अहित करने की कोशिश करता था। उनका दृढ़ निश्चय था कि मनुष्य को किसी से डरना नहीं चाहिए, और किसी को भी डराना नहीं चाहिए। वे बचपन से ही सरल, सहज, और भक्ति-भाव से भरे कर्मयोगी थे और उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्य, और वैराग्य की भावना थी।

गुरु गोविंद सिंह का मानना था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, और भाईचारे के माध्यम से समाज में एकता और सद्गुणों का प्रचार-प्रसार किया।

1699 में, जब सभी शिष्य जमा हुए, तो गुरु गोबिंद सिंह ने एक खालसा वाणी की स्थापना की और उन्होंने अपनी सेना को सिंह (शेर) का नाम दिया। उन्होंने 'दी फाइव के' यानी पांच मूल सिध्दांतों की स्थापना की, जिनमें ब्राल (बालों को न काटना), कंघा (स्वच्छता का प्रतीक), कड़ा (स्वयं की रक्षा), कच्छा (और साधना का संकल्प), और किरपन (हर गरीब की रक्षा) शामिल थे। इन सिध्दांतों के माध्यम से, गुरु गोविंद सिंह ने समाज में समरसता, शक्ति, और धर्म के मूल्यों की रक्षा की।

गुरु गोबिंद सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21 जून, 1677 को उनका पहला विवाह 10 साल की उम्र में माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में हुआ। इन दोनों के बीच 3 पुत्रों का जन्म हुआ, जिनके नाम थे - जुझार सिंह, जोरावर सिंह, और फ़तेह सिंह।

4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में, उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। इस विवाह से एक बेटे का जन्म हुआ, जिसका नाम था अजित सिंह।

15 अप्रैल, 1700 को, उनकी 33 वर्ष की आयु में, गुरु गोबिंद सिंह ने माता साहिब देवन से तीसरा विवाह किया।

चार साहिबजादे शब्द का प्रयोग गुरु गोबिंद सिंह जी के चार सुपुत्रों - साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, ज़ोरावर सिंह, और फतेह सिंह को सामूहिक रूप से संबोधित करने के लिए किया जाता है।

चार साहिबजादों का साहस और उनका बलिदान हिन्दू-सिख सामंजस्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जो उन्हें अपने जीवन के अंत तक अपने धर्म और मूल्यों के प्रति पूरी तरह समर्पित बनाए रखा। इनमें से हर एक ने अपने जीवन के प्रति उनके पिताजी गुरु गोबिंद सिंह जी के उदाहरण के रूप में बचपन से ही अद्वितीय प्रेरणा प्राप्त की और सिख योद्धा के रूप में उभरे।

मुग़ल साम्राज्य ने भारत पर लगभग सौ साल तक अपना शासन बनाए रखा, जिसके दौरान उन्होंने इस्लाम धर्म को फैलाने के लिए हिन्दू समुदाय पर विभिन्न रूपों में जुल्म किए। ऑरंगजेब, मुग़ल शासकों की तानाशाही की एक उच्च शिखर थे, जिन्होंने जुल्म की सारी हदें तोड़ीं, हिन्दूओं को पगड़ी पहनने और घोड़ी पर चढ़ने की रोक लगाई, और विशेष रूप से हिन्दू जातियों पर जजिया टैक्स लगाई। इसके परिणामस्वरूप, हिन्दू समुदाय में आपसी कलह के कारण जुल्मों का विरोध कम था। इस विरोध के उत्तराधिकारी के रूप में दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी ने निर्बल हिन्दू समुदाय में नया उत्साह और जागरूकता पैदा करने का संकल्प किया। उन्होंने 1699 में बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य समुदाय को एक सशक्त सामूहिक रूप में जोड़ना था। हालांकि, इसे कई स्थानों पर सिखों, हिन्दूओं, और उच्च जातियों के बीच विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन खालसा पंथ ने अपनी साहसपूर्ण संघर्षशीलता से उन्हें सफलता प्राप्त की और जुल्मों के खिलाफ मुकाबला किया।

सरहंद के सूबेदार वजीर खान और पहाड़ी राजे ने एकजुट होकर 1704 में गुरु गोबिन्द सिंह जी पर हमला किया। सिख समुदाय ने बहादुरी से इसका मुकाबला किया और सात महीने तक आनन्दपुर के किले पर कब्जा नहीं होने दिया। अंत में, मुगल शासकों ने गुरु गोबिन्द सिंह जी से किले को खाली करने के लिए विनती की, कुरान की कसम खाकर और हिन्दू राजाओं ने गौ माता की कसम खाकर। 20 दिसम्बर 1704 की रात को गुरु गोबिन्द जी ने किले को खाली कर दिया और अपनी सेना के साथ रोपड़ की ओर कूच किया। मुगलों को इस बात का पता चला तो उन्होंने सारी कसमें तोड़ दीं और गुरु जी पर हमला किया। लड़ते लड़ते सिख समुदाय ने सिरसा नदी पार कर गया और चमकौर की गढ़ी में गुरु जी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला। यह जंग विशेष है क्योंकि 80,000 मुगलों के खिलाफ केवल 40 सिखों ने बहादुरी से मुकाबला किया। जब सिखों का बारूद खत्म हो गया, तो गुरु गोबिन्द सिंह जी ने पांच सिखों को मैदान में भेजकर संघर्ष को जारी रखा।

अजीत सिंह, श्री गुरु गोबिन्द सिंह के सबसे बड़े पुत्र, ने चमकौर के युद्ध में अपनी अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त की। गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए पांच प्यारों ने उसे समझाने का प्रयास किया कि वह युद्ध में न जाए, क्योंकि उन्हें ही पर सिख धर्म को आगे बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का जिम्मा था। हालांकि, अजीत सिंह की वीरता ने गुरु जी को उनके पथ से हटने पर मजबूर कर दिया। गुरु जी ने उसे निराश नहीं किया और स्वयं उनके हाथों से शस्त्र सौंपकर उसे युद्ध के लिए तैयार किया। उन्होंने अपने पुत्र को पंज प्यारों के साथ किले से बाहर रवाना किया। रणभूमि में पहुंचते ही, अजीत सिंह ने मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया और उसका युद्ध दृश्य भयंकर था, जैसे कोई अद्वितीय शक्ति उन पर कहर बरसा रही हो।

अजीत सिंह एक के बाद एक वार कर रहे थे, उनकी वीरता और साहस को देखते हुए मुगल फौज पीछे भाग रही थी लेकिन वह समय आ गया था जब अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे थे। जैसे ही दुश्मनों को यह अंदाज़ा हुआ कि अजीत सिंह के तीर खत्म हो रहे हैं, उन्होंने साहिबजादे को घेरना आरंभ कर दिया लेकिन तभी अजीत सिंह ने म्यान से तलवार निकाली और बहादुरी से मुगल फौज का सामना करना आरंभ कर दिया। कहते हैं तलवार बाजी में पूरी सिख फौज में भी अजीत सिंह को कोई चुनौती नहीं दे सकता था तो फिर ये मुगल फौज उन्हें कैसे रोक सकती थी। अजीत सिंह ने एक-एक करके मुगल सैनिकों का संहार किया, लेकिन तभी लड़ते-लड़ते उनकी तलवार भी टूट गई। फिर उन्होंने अपनी म्यान से ही लड़ना शुरू कर दिया, वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने शहादत को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए।

शहीद साहिबजादा अजीत सिंह के नाम पर पंजाब के मोहाली शहर का नामकरण होकर "साहिबजादा अजीत सिंह नगर" के रूप में किया गया है। इनके छोटे भाई जुझार सिंह ने भी उनके बड़े भाई के बलिदान के बाद नेतृत्व संभाला और उनके पदचिन्हों का संचालन किया। उन्होंने अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति की प्राप्ति की। छोटे साहिबजादे ने छोटी सी आयु में ही मुगलों के साथ मुकाबला किया और शौर्यगाथा में शामिल होकर शहीद हो गए। इन दोनों योद्धाओं ने अपने प्राणों के साथ देश की आज़ादी के लिए वीरता और बलिदान का परिचय दिया, जिससे उन्हें समर्थन और आदर का हक प्राप्त हुआ।

दूसरी ओर सिरसा नदी पार करते वक्त गुरू जी की माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे बिछुड़ गए, गुरु जी का रसोईया गंगू ब्राहम्ण उन्हें अपने साथ ले गया। रात को उसने माता जी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली, सुबह जब माता जी ने गठरी के बारे में पूछा तो वो न सिर्फ आग बबूला ही हुआ, बल्कि उसने गांव के चौधरी को गुरु जी के बच्चों के बारे में बता दिया, और इस तरह ये बात सरहिन्द के नवाब तक पहुंच गई। सरहंद के नवाब ने उन्हें ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया। नवाब ने दो तीन दिन तक उन बच्चों को इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा, जब वो नहीं माने तो उन्हें खूब डराया धमकाया गया, मगर वो नहीं डोले और वो अडिग रहें उन्हें कई लालच दिए गए। लेकिन वो न तो डरे, न ही किसी बात का लोभ और लालच ही किया, न ही धर्म को बदला। दोनों साहिबजादे गरज कर जवाब देते, 'हम अकाल पुर्ख (परमात्मा) और अपने गुरु पिताजी के आगे ही सिर झुकाते हैं, किसी ओर को सलाम नहीं करते। हमारी लड़ाई अन्याय, अधर्म एवं जुल्म के खिलाफ है। हम तुम्हारे इस जुल्म के खिलाफ प्राण दे देंगे लेकिन झुकेंगे नहीं।

नवाब की कोशिशों के बावजूद, साहिबजादे अपने आत्मविश्वास और अपने मूल्यों के प्रति पूरी तरह अडिग रहे। उन्होंने न तो डर का इज़हार किया और न ही किसी बात के लोभ में पड़े। उनकी साहसपूर्ण उपस्थिति ने उन्हें इस्लाम धर्म को बदलने से रोका। यह घटना न सिर्फ धार्मिक स्वतंत्रता और अपने मूल्यों के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता का प्रतीक है, बल्कि इससे साहिबजादे का साहस और सामर्थ्य भी प्रकट होता है। उनकी इस उदाहरण से हमें यह सिखने को मिलता है कि अपने मूल्यों और धर्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से किसी भी परिस्थिति में अपने स्थान को मजबूती से बनाए रखना महत्वपूर्ण है।

सुचानंद दीवान ने नवाब को ऐसा करने के लिए उकसाया और यहां तक कहां कि यह सांप के बच्चे हैं इनका कत्ल कर देना ही उचित है। आखिर में काजी को बुलाया गया, जिसने उन्हें जिंदा ही दीवार में चिनवा देने का फतवा दे दिया। उस समय मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खां भी वहां उपस्थित थे। उसने इस बात का विरोध किया, फतवे के अनुसार जब 27 दिसम्बर 1704 में छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिना जाने लगा तो, जब दीवार गुरु के लाडलों के घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काट दिया गया ताकि दीवार टेढी न हो जाए, जुल्म की इंतहा तो तब हो गई, जब दीवार साहिबजादों के सिर तक पहुंची तो शाशल बेग और वाशल बेग जल्लादों ने शीश काट कर साहिबजादों को शहीद कर दिया। छोटे साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर उनकी दादी स्वर्ग सिधार गई। इतने से भी इन जालिमों का दिल नहीं भरा और लाशों को खेतों में फेंक दिया गया। जब इस बात की खबर सरहंद के हिन्दू साहूकार टोडरमल को लगी तो उन्होंने संस्कार करने की सोची, उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए, उतनी जगह पर सोने की मोहरें बिछानी पड़ेगी। कहते हैं कि टोडरमल जी ने उस जगह पर अपने घर के सब जेवर और सोने की मोहरें बिछा कर साहिबजादों और माता गुजरी का दाह संस्कार किया... संस्कार वाली जगह पर बहुत ही सुन्दर गुरुव्दारा ज्योति स्वरूप बना हुआ है जबकि शहादत वाली जगह पर बहुत बड़ा गुरूव्दारा है, यहां हर साल 25 से 27 दिसम्बर तक शहीदी जोड़ मेला लगता है जो तीन दिन तक चलता है धर्म की रक्षा के लिए नन्हें बालकों ने हंसते हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए मगर हार नहीं मानी। मुगल नवाब वजीर खान के हुक्म पर इन्हें फतेहगढ़ साहिब के भौरा साहिब में जिंदा चिनवा दिया गया। यही नहीं छोटे साहिबजादे बाबा फतेह सिंह के नाम पर इस स्थान का नाम फतेहगढ़ साहिब रखा गया था।

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत। पूर्जा पूर्जा कट मरे, कबहू न छोड़े खेत ।।

जोरावर सिंह जी की शहादत के समय उनकी उम्र केवल 9 साल थी, जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र 7 साल थी। इनके नाम के साथ "बाबा" शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया, क्योंकि इन छोटे साहिबजादों ने इतनी छोटी आयु में ही अपनी शहादत देकर मिसाल प्रस्तुत की। इनकी अनूठी बलिदानों के कारण इन्हें "बाबा" के रूप में सम्मानित किया गया, जो उनके बहादुरी, निष्ठा और धर्म के प्रति अद्वितीय समर्पण का परिचायक हैं। इन साहिबजादों ने धर्म और कौम के लिए अपनी जान देने में साहस और वीरता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया, जिससे उन्हें समृद्धि और बलिदान की ऊँचाई प्राप्त हुई। इस बड़े साहिबजादों और छोटे साहिबजादों के बलिदान ने अनगिनत लोगों को प्रेरित किया है और उन्हें एक उदाहरण स्थापित किया है कि अगर सच्चे ईमान और धर्म के लिए जीवन देना पड़ता है, तो इसमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। इन श्रद्धांजलि साभारी शहीद साहिबजादों की जयंती पर हमें इनके साहस, बलिदान, और धर्म रक्षा में प्रतिबद्धता की याद करनी चाहिए।
© Pradeep Parmar