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पूर्णकाल से स्थापितकाल में होकर परयकाल में।। भाग २
इस भाग में हम जानेंगे कि एक स्त्री का काल कैसे एक स्त्री जन्म लेकर कैसे तीनों कालचक्र में अहम भूमिका निभाते हुए एक जीवन की उत्पत्ति करती हैं।
पहला श्राप -कलकिनी बूढिया द्वारा कन्या लैसवी श्रापित।।
दूसरा श्राप -दुरबल कन्या लैसवी द्वारा यमराज को।।
तीसरा श्राप -श्रीहरि को बहामण भेष में कन्या लैसवी द्वारा।।
प्रथम प्रतिशोध की अग्नि अनन्त प्रज्वलित ज्योति रहे।।
आईए देखते हैं कि क्या कहना चाहती है लेखिका(वैशया)। लेखक श्री कृष्ण द्वारा रचित।।
लेखिका यह बताना चाहती है कि स्त्री एक बहुत पीड़ा से उत्पन्न हुई है क्योंकि सबकुछ स्त्री का ना होते हुए भी सबकुछ उसी का है क्योंकि पुरुष काभी अकेला महान नहीं होता क्योंकि पुरुष हमेशा जानता है कि वो आजाद मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि पुरुष कू दृष्टि से हर इस्त्री को एक ही नज़र से देखें मगर मर्द जात स्त्री के हर का को कही ना चुभ जाती है और वैशया वहीं नहीं जो जिस्म बेचे वैशया हर लड़की के रूप में देखी जा सकती हैं क्योंकि हर आदम को लगता है की स्त्री को पाना है तो सोना ही जरूरी है।। मगर क्या ऐसा होता है।।

वैशया के द्वारा श्रीकृष्ण से सवाल-हे मेरे इष्ट मेरे मन कुछ संगकाए है कृपया दिशा दे कर मार्गदर्शन करें।। पहले तुम शांत हो जाओ फिर सांस लेकर सरलता से हमे पूरी विपधा स्पष्ट रूप से समझा ओ।।
और हा हम सबकुछ जानते हैं इसलिए सत्य बताओ।।
फिर वैशया अपनी उतेजना और शीघ्रता का सत्य का ग्रन्थ श्री हरि को बतला रही है और उनसे सवालो के जवाब पाने के लिए उनमोख है।।
#बलजोरीकीउनमुखता।।
#श्री हरि मार्गदर्शन।।
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