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उत्तर और प्रतिक्रिया
"उत्तर" और "प्रतिक्रिया",ये दो ऐसे शब्द हैं जो हमें हमेशा उलझन में डाल देते हैं कि कहाँ हमें "उत्तर" देना चाहिए और हमें किस परिस्थिति पर "प्रतिक्रिया" प्रकट करनी चाहिए।
नहीं?
विचार करके देखिए।

हम सब कभी न कभी ऐसी परिस्थिति से अवश्य गुज़रते हैं जहाँ हमें "उत्तर" देने की बहुत जल्दी रहती है,एक तरह की उत्सुकता बनी रहती है कि कहीं कोई हमें कमज़ोर ना समझ बैठें।

और साथ ही साथ हमारे साथ कोई व्यंग्य कर बैठें अथवा हमारा मज़ाक बना दे तो हम इतने उत्तेजित हो उठते हैं कि बिना "प्रतिक्रिया" दिए तो हम जैसे रह ही नहीं सकते। बार-बार ये विचार मन में आता है कि:-
सामने वाले ने मुझे ये कहा कैसे?
मेरे पर व्यंग्य किया कैसे?
मेरा हास्य बनाने की हिम्मत कैसे हुई उसकी?

और ऐसे ही अनेक विचार हमें ले जाते हैं एक ऐसी अवस्था में जहाँ हम विवश हो जाते हैं "प्रतिक्रिया" देने को।

अब हम ऊपर दी गई दोनों परिस्थितियों को ध्यान से देखें तो तुरंत ही ये जान पाएँगे कि "उत्तर" और "प्रतिक्रिया" अलग लगने वाले ये शब्द कहीं एक ही सिक्के के दो पहलू तो नहीं????

यदि "हाँ" तो कैसे
और
यदि "नहीं" तो कैसे?

इन दोनों प्रश्नों के लक्ष्य तक पहुँचने से पूर्व आइए हम चलते हैं "उत्तर" और "प्रतिक्रिया" की वास्तविकता की ओर:-

"उत्तर":-
कुछ जानने की इच्छा से जब हम चलना शुरू करते हैं और चलते-चलते जिस लक्ष्य को हम प्राप्त करते हैं वो कहलाता है-"उत्तर"। अर्थात लक्ष्य प्राप्ति ही "उत्तर" प्राप्त करना है जिससे हमारा कल्याण निश्चित है क्योंकि हमने अपना सारा सामर्थ्य और मन उसे जानने की इच्छा से उसी की ओर लगा दिया। और जहाँ सामर्थ्य और मन दोनों का मेल होता है वहाँ असंभव को संभव बनाने की शुरूआत होती है जिन्हें संसार "चमत्कार" की उपाधि देता है।

दूसरे शब्दों में:
ऊपर उठते हुए तर जाना है "उत्तर"। जितना ऊँचा हम उठते हैं उतना ही विशाल दृश्य हम देख पाते हैं,ठीक उसी प्रकार जब हमारी आत्मा उन्नत हो ऊपर उठना शुरू होती है तो उसका दृष्टिकोण भी बढ़ता जाता है और प्राप्त करता है अनंत को जिससे हमारा मानव शरीर सदा के लिए बिना प्रयास ही तर जाता है।

{अर्थात जब हम सत्य जान लेते हैं-"उत्तर" प्राप्त कर लेते हैं तो हमें किसी को ये दर्शाने की ज़रूरत नहीं कि हम जानते हैं,जब तक हमसे आग्रह ना किया जाए तब तक।}

"प्रतिक्रिया":-
हम जब भी कोई कर्म करते हैं तो हमें उसके प्रतिफल स्वरूप कुछ ना कुछ अवश्य प्राप्त होता है,कभी हमारा मनचाहा और कभी हमारे मन के विपरीत।
और यहीं से जन्म होता है एक भावना का उन परिणामों के प्रति जिसे हम "प्रतिक्रिया" से सम्बोधित किया करते हैं। और जब ये जन्म लेती है,तो इतने ज़्यादा उत्तेजित हो जाते हैं कि सकारात्मक परिणाम पर सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम पर नकारात्मक व्यवहार करने लगते हैं।

दूसरे शब्दों में हम "उत्तर" देने और "उत्तर" की ओर अग्रसर होने का प्रयास कर रहे होते हैं कि आखिर ये हुआ तो क्यों?

"प्रतिक्रिया" शब्द को ध्यान से देखें:-

"परा-इति-क्रिया",
अर्थात
परा(परम तत्व) ही क्रिया है अथवा परा(परम तत्व) ही क्रिया करता है और करवाता है औ एक वह ही सभी क्रियाओं को जन्म भी देता है।
और जब हम उसके मार्गदर्शन के अनुसार क्रिया अथवा कर्म करते हैं तब वास्तव में हम उत्तर प्राप्त करते हैं।

अब से कभी आपको ये शंका हो कि

"उत्तर" कहाँ दूँ तो अपने मन से ये अवश्य पूछ लीजिएगा कि:-
(क्या आप वाकई सत्य जान चुके हैं?
यदि "हाँ" तो कोई आवश्यकता नहीं उत्तर देने की,
और
यदि "नहीं" तो आवश्यकता है उत्तर जानने की)

("प्रतिक्रिया" प्रकट करने की आवश्यकता तो वैसे भी नहीं पड़ने वाली आपको क्योंकि वो तो वैसे भी हमारे कार्यों के फलस्वरूप प्रकट होती ही रहेंगी और क्योंकि "परम तत्व" स्वयं क्रिया के जन्मदाता हैं, तो सही समय,सही स्थान पर प्रकट कर ही देंगे आपके माध्यम से)

अरे!
अगर स्विच ऑन करेंगे तो प्रकाश तो होना ही है।
नहीं?
मनन अवश्य कीजिएगा।

© beingmayurr