उत्तर और प्रतिक्रिया
"उत्तर" और "प्रतिक्रिया",ये दो ऐसे शब्द हैं जो हमें हमेशा उलझन में डाल देते हैं कि कहाँ हमें "उत्तर" देना चाहिए और हमें किस परिस्थिति पर "प्रतिक्रिया" प्रकट करनी चाहिए।
नहीं?
विचार करके देखिए।
हम सब कभी न कभी ऐसी परिस्थिति से अवश्य गुज़रते हैं जहाँ हमें "उत्तर" देने की बहुत जल्दी रहती है,एक तरह की उत्सुकता बनी रहती है कि कहीं कोई हमें कमज़ोर ना समझ बैठें।
और साथ ही साथ हमारे साथ कोई व्यंग्य कर बैठें अथवा हमारा मज़ाक बना दे तो हम इतने उत्तेजित हो उठते हैं कि बिना "प्रतिक्रिया" दिए तो हम जैसे रह ही नहीं सकते। बार-बार ये विचार मन में आता है कि:-
सामने वाले ने मुझे ये कहा कैसे?
मेरे पर व्यंग्य किया कैसे?
मेरा हास्य बनाने की हिम्मत कैसे हुई उसकी?
और ऐसे ही अनेक विचार हमें ले जाते हैं एक ऐसी अवस्था में जहाँ हम विवश हो जाते हैं "प्रतिक्रिया" देने को।
अब हम ऊपर दी गई दोनों परिस्थितियों को ध्यान से देखें तो तुरंत ही...
नहीं?
विचार करके देखिए।
हम सब कभी न कभी ऐसी परिस्थिति से अवश्य गुज़रते हैं जहाँ हमें "उत्तर" देने की बहुत जल्दी रहती है,एक तरह की उत्सुकता बनी रहती है कि कहीं कोई हमें कमज़ोर ना समझ बैठें।
और साथ ही साथ हमारे साथ कोई व्यंग्य कर बैठें अथवा हमारा मज़ाक बना दे तो हम इतने उत्तेजित हो उठते हैं कि बिना "प्रतिक्रिया" दिए तो हम जैसे रह ही नहीं सकते। बार-बार ये विचार मन में आता है कि:-
सामने वाले ने मुझे ये कहा कैसे?
मेरे पर व्यंग्य किया कैसे?
मेरा हास्य बनाने की हिम्मत कैसे हुई उसकी?
और ऐसे ही अनेक विचार हमें ले जाते हैं एक ऐसी अवस्था में जहाँ हम विवश हो जाते हैं "प्रतिक्रिया" देने को।
अब हम ऊपर दी गई दोनों परिस्थितियों को ध्यान से देखें तो तुरंत ही...