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मनोविज्ञान कमाल का 1
मनोविज्ञान का ज्ञान कमाल का - भाग 1
बीके किशन दत्त, शान्तिवन


आत्माओं की आदि अनादि इनबिल्ट (आंतरिक निर्मिति) समानताओं और असमानताओं का ज्ञान भी क्या कमाल का ज्ञान है!! सबका पार्ट अलग अलग है। सबके संसार अलग अलग हैं। सबके विचार और संस्कार अलग अलग हैं। सबके गुण स्वभाव अलग अलग हैं। सबके कर्म और कर्म करने की क्षमताएं अलग अलग हैं। प्रस्तुत विवेचन में ऐसे सभी बिन्दुओं को हम सरल तरीके से विवेचन कर समझाने का प्रयास कर रहे हैं। इसे समझना प्रत्येक मनुष्य के लिए उपयोगी है। इसे ध्यान से ही पढ़ेंगे तो ही ठीक तरह से समझ सकेंगे।

विश्व की ऐतिहासिक स्थिति का अगर अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि ज्यादातर अवसरों या परिस्थितियों में कठिनाइयाँ त्रेतायुग से ही रही है। कम रही हो या ज्यादा। उन कठिनाइयों के आधार में एक मूल कठिनाई है मनुष्यों की पारस्परिक अवधारणाओं और विचारों की समझ की भिन्नता। तीन युगों के लम्बे सफर के बाद ये कठिनाईयां बढ़ी हीं हैं। कम नहीं हुईं हैं। ये कठिनाईयां जब एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती हैं तब हम इन्हें समस्या(ओं) का नाम दे देते हैं।

सर्व प्रकार की भिन्नताआें का ज्ञान होना जरूरी

धर्म, समुदाय, मठ, पंथ इत्यादि सभी में मौलिक रूप से वैचारिक भिन्नता रहती है। यह भिन्नता की धारणा धीरे धीरे अवचेतन अचेतन तक समा जाती है। वैचारिक भिन्नता के कारण ही सबका अपना अपना मन एक निश्चित इनबिल्ट सीमा तक ही काम करता है। इसलिए वे एक दूसरे को नहीं समझ पाते हैं। यह भिन्नताओं को नहीं समझने की स्थिति जब ज्यादा बढ़ जाती है तो मनुष्य एक दूसरे के प्रति निन्दा ग्लानि (क्रिटिसिज्म) का भाव रखने लगते हैं। अनेक वैचारिक वाद विवादों का कारण भी यही होता है। जैसे उदाहरण के तौर पर :- एक धर्म वाले दूसरे धर्मों के ज्ञान या दर्शन के विषय को लेकर निंदा ग्लानि करते हैं। यह एक सामान्य सी बात है। इत्यादि इत्यादि, ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे अलग अलग वैचारिक अवधारणाओं की कठिनाइयों को समझा जा सकता है। इसलिए लोग एक दूसरे को गलत सिद्ध करते रहते हैं। इन्हीं अनेक प्रकार की वैचारिक समझ के कारण मनुष्यों की पारस्परिक अवधारणायें बन जाती हैं।

धीरे धीरे ये अवधारणाएं ही वृत्ति का रूप ले लेती हैं। वृत्ति को मिटाना असम्भव होता है। वृत्ति की सूक्ष्म अदृश्य लकीर आत्मा के अचेतन में रहती है।जो वृत्ति बन जाती है वह अविनाशी बन जाती है। वृत्ति का अर्थ ही होता है एक ऐसा आंतरिक इनबिल्ट मानसिक वृत जो पुनरावृत्त होता रहता है। प्रकृति के पास उसे नष्ट करने की कोई विधि नहीं है। इतना तो हो सकता है कि किसी अन्य प्रकार की वृत्ति बनाई जा सकती है और पुरानी वृत्ति को विस्मृत किया जा सकता है। पर आध्यात्मिक विज्ञान यह दावा करता है कि जो वृत्ति एक बन गई उसकी अदृश्य अचेतन छाप मनसजगत में अमिट रूप से रह जाती है।

विषम परिस्थितियों के परिदृश्यों और व्यवहारिक समझ के विषम अनुपात के परिदृश्यों में ज्ञान की मनोवैज्ञानिक परिपक्व समझ हमें सहज और सरल बनाए रखती है। इसी परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यकता समझी गई कि इस विषय को स्पष्ट किया जाए। आज हम इसी विषय पर इसके कुछ पारस्परिक समझ के मुख्य बिन्दुओं पर चर्चा करेंगे। इन बिंदुओं को हम कई आयामों में समझ सकते हैं। जैसे उदाहरण तौर पर कुछेक इस प्रकार हैं :-

विचारों की समानता और असमानता

जैसे मेरे विचार हैं, यह जरूरी तो नहीं कि अन्य लोगों के भी विचार ठीक मेरे जैसे ही होंगे। जैसे दूसरे या दूसरों के विचार हैं। यह जरूरी तो नहीं कि मेरे विचार भी ठीक उनके जैसे ही होंगे। जैसा मैं सोचता हूं, यह जरूरी तो नहीं कि ठीक वैसा ही हमेशा दूसरे लोग भी सोचेंगे। जैसा दूसरा व्यक्ति सोचता है, यह हमेशा जरूरी तो नहीं कि ठीक वैसा ही मैं भी सोचूंगा। जैसी मेरे समझ है, यह जरूरी तो नहीं कि दूसरों की भी ठीक वैसी ही समझ होगी। जैसी दूसरों की समझ है, यह हमेशा जरूरी तो नहीं कि ठीक वैसी ही समझ मेरी भी होगी। जो विचारवान आत्माएं हैं उनके लिए वैचारिक भिन्नता को समझना बहुत मायने रखता है।

कर्म व्यवहार की समानता और असमानता

जैसा एक व्यक्ति करता है, यह हमेशा ही जरूरी नहीं कि ठीक वैसा ही अन्य लोग भी करते हों। जैसा दूसरे लोग करते हों या कर सकते हैं, यह हमेशा ही जरूरी तो नहीं कि ठीक वैसा ही सभी लोग करते हों या कर सकते हों। कुछ लोगों के करने में समानता हो सकती है और कुछ लोगों के करने में समानता नहीं भी हो सकती है। सभी एक जैसा कार्य करने लगें तो कैसी हालत होगी। सबके कार्य क्षेत्र की विविधता सृष्टि की व्यवस्था को रुचिता देती है। यह विविधता सृष्टि की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के आवश्यक भी होती है। यह समानता और असमानता के अनुपात का मनोविज्ञान काम करता रहता है।

नजर या वृत्ति या दृष्टिकोण की समानता और असमानता

अक्सर हम यह सोचते हैं कि हम अपनी नजर में या योग्य हैं तो दूसरों की नजर में भी योग्य ही होंगे। लेकिन नहीं। ऐसा हमेशा नहीं होता है। इसे दूसरी तरह से समझें। मैं दूसरों की नजर में योग्य हूं तो यह जरूरी नही कि मैं स्वयं की नजर में भी योग्य हूं या योग्य ही हूंगा। नहीं। ऐसा भी हमेशा नहीं होता। मैं स्वयं की नजर में योग्य हूं। यह जरूरी तो नहीं कि सभी की नजर में भी योग्य ही हूंगा। मैं स्वयं की नजर में अयोग्य हूं। यह जरूरी तो नहीं कि मैं सभी की नजर में अयोग्य ही हूंगा। नहीं। ऐसा कभी नहीं होता। किसी के विचार अच्छे हैं तो यह जरूरी तो नहीं होता कि सभी के विचार अच्छे ही हों या अच्छे ही होंगे। इत्यादि। इसे हम और भी अन्य आयामों में समझ सकते हैं। जैसे ये कुछेक उदाहरण हैं :-

मैं कुछ लोगों की नजर में योग्य हूं। यह जरूरी तो नहीं कि सभी की नजर में योग्य ही हूंगा। मैं कुछ लोगों की नजर में अयोग्य हूं। यह जरूरी तो नहीं कि सभी की नजर में अयोग्य ही हूंगा। नहीं। ऐसा कभी नहीं होता।

जो मेरी नजर में अयोग्य हैं। यह जरूरी नहीं कि वे सभी की नजर में अयोग्य ही होंगे। जो मेरी नजर में योग्य हैं। यह जरूरी नहीं कि वे सभी की नजर में योग्य ही होंगे। नहीं। ऐसा नहीं होता।

मैं स्वयं की नजर में अच्छा हूं। यह जरूरी तो नहीं कि अन्य सभी की नजर में अच्छा ही हूंगा। मैं स्वयं की नजर में बुरा हूं। यह जरूरी तो नहीं कि अन्य सभी की नजर में बुरा ही हूंगा। नहीं, ऐसा हमेशा नहीं होता है।

मैं कुछ लोगों की नजर में अच्छा हूं। यह जरूरी तो नहीं कि सभी की नजर में अच्छा ही हूंगा। मैं कुछ लोगों की नजर में बुरा हूं। यह जरूरी तो नहीं कि सभी की नजर में बुरा ही हूंगा। नहीं, ऐसा भी कभी नहीं होता है।

हर आत्मा के अवचेतन अचेतन का अलग अलग कोण क्यों?

ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि जीवन के जिस मनोवैज्ञानिक मानसिक स्थिति (कोण) पर आपका जीवन अस्तित्व अवस्थित है। ठीक उसी मनोवैज्ञानिक कोण पर कुछ अन्य लोग भी अवस्थित होते हैं और कुछ अन्य लोग ठीक उसी मनोवैज्ञानिक कोण पर अवस्थित नहीं होते हैं। इसका अंतर्निहित मतलब यह हुआ कि जो लोग ठीक आपके मनोवैज्ञानिक कोण पर अवस्थित होते हैं उन लोगों की समझ आपके जैसी होती है। जो ठीक वैसे कोण पर अवस्थित नहीं होते हैं, उनकी समझ आपके जैसी नहीं होती है। इसका किसी भी व्यक्ति को सचेतन रूप से पता नहीं चलता है। यह एक अचेतन रूप का सूक्ष्म मनोविज्ञान है। यह दृष्टिकोण की भिन्नताआें का मनोविज्ञान है। यह अचेतन सूक्ष्म रूप से व्यवहारिक जीवन में आता रहता है।

अनादि आदि निजता की निर्मिती को ठीक से समझें। उसे बदलने में समय शक्ति नहीं लगाएं।

इसलिए किसी व्यक्ति को, या किसी परिस्थिति को, या किसी वैचारिक अवधारणा को, या किसी प्रकार की व्यवहारिक समझ को, या किसी भी अन्य प्रकार की ज्ञान की समझ को समझने में अन्तर रहता है। यह अन्तर सदा से था, है और रहेगा। छोटे बड़े मिलाकर कम से कम तीन सौ धर्म संसार में हैं। तीन सौ से ज्यादा प्रकार की शिक्षा की शाखाएं हैं। इन समस्त प्रकार की धार्मिकताओं के बनने में, इन समस्त प्रकार की शिक्षाओं के ज्ञान के अस्तित्व में आने में, सर्व प्रकार की सामुहिकताओं के बनने में, सर्व प्रकार के संगठनों के बनने में, समस्त प्रकार के मत मतान्ततरों के बनने में यही दृष्टिकोण का एक आधारभूत अन्तर काम कर रहा होता है। इसे बदला नहीं जा सकता है। इसे दूसरी तरह से भी समझें। आत्माएं चाहे कोई भी हों, उन सभी आत्माओं में आदि अनादि रूप से एक निश्चित प्रकार का दृष्टिकोण इनबिल्ट ही है। हम अक्सर कहते हैं कि हमने उन्हें समझाया और उनका दृष्टिकोण परिवर्तन होकर जीवन परिवर्तन हो गया। लेकिन यह दृष्टिकोण परिवर्तन इसलिए ही हुआ, क्योंकि वैसा दृष्टिकोण उन आत्माओं में पहले से ही अदृश्य रूप में (मर्ज रूप में) मौजूद ही था। वह प्रकट नहीं हुआ था। हमने सिर्फ उन्हें उनके अंतर्निहित गुणों और दृष्टिकोण की स्मृति दिलाई। स्मृति आने से उनका अपना ही डोरमेंट दृष्टिकोण प्रकट हो गया। यदि वह डोरमेंट रूप में नहीं होता तो प्रकट भी नहीं हो सकता था। हमारे समझाने से वह परिवर्तन नहीं हो सकता था। इसका अर्थ यह हुआ कि हम वही समझा सकते हैं जो हमने पहले भी कभी अतीत में समझा हुआ था। इसका यह भी अर्थ हुआ कि हम वही समझ सकते हैं जो हमने पहले भी कभी अतीत में समझा हुआ था। क्रमशः.....अगले अंक में भाग - 2 धन्यवाद।