किराए की कोख
सेरोगेसी कोख का दर्द
मैं उसके असली माता-पिता से कभी नहीं मिली और मुझे नहीं पता कि वे लोग कौन हैं. मुझें कब डिलेबरी के लिए लेबर रूम में लें जाया गया ये मुझें नहीं पता तब मैं बेहोश थी कब उन्होंने मेरी कोख से बच्चे को निकाला इसका मुझें कुछ भी नहीं पता इस लिए मैं उस बच्चे की शक्ल भी नहीं देख सकी मुझे ये भी नहीं पता कि वह गोरा था या सावला था मुझे तो यह भी नहीं पता कि वह लड़का था या लड़की जब मुझे होश आया, तो मैंने अपने पति से पूछा था के 'क्या तुमने बच्चे को देखा?
मेरे इस सवाल पर मेरे पति चुप थे हम अस्पताल के प्राइवेट वार्ड के रूम में अकेले थे मेरी डिलेबरी सिजेरीयन से हुई थी. मैं उस वक़्त जितनी उस डिलेबरी पर लाचार थी उतनी उससे पहले हुई दो डिलेबरी पर नहीं थी क्युकि उस वक़्त वो मेरे और मेरे पति के बच्चे थे लेकिन इस बच्चे को नौ महीने अपनी कोख में रखने के बाद भी हम अपना नहीं कह सकते थे क्योंकि मेरी कोख में किसी और का बच्चा पल रहा था वो लोग कौन थे कहां से थे इसका हमें कुछ पता नहीं था क्योंकि मैंने अपनी कोख किसी और के बच्चे को पैदा करने के लिए किराए पर दी थी लेकिन फिर भी वो बच्चा तो मेरी ही कोख में पला था इसलिए उससे मेरा लगाव हो गया था. उस समय मुझें ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने मेरे शरीर का कोई अंग काट कर छीन लिया हो... मैं सिसकती रही मैंने अपने डॉक्टर से भी पूछा लेकिन किसी ने उसके बारे में कुछ नहीं बताया..तब मुझें एहसास हुआ के हमने पैसों के खातिर कितना गलत कदम उठा लिया था.. भले मेरे पति उस बात को कितना भूल चुके हैं ये तो मैं नहीं जानती पर हां वो मेरी ख़ुशी में साथ जरूर देते हैं...
ये दर्द एक सेरोगेसी औरत की उस ममता का हैं जो मातृत्व का दर्द झेल कर किसी के लिए उसने बच्चे को जन्म देकर झेला हैं. जो मां अपनी कोख से बच्चा पैदा करती हैं वही इस ममता के दर्द को और एहसास को समझ सकती हैं. लेकिन विज्ञान के अविश्कार ने जहां इंफ्रटिलिटी को झेलने वाले दम्पतियों के लिए भले ही सराहनीय अविश्कार किया हो लेकिन इस अविष्कार का दुरूपयोग भी अपनी अलग दस्ता कहता हैं.
ये बात मेरे दिमाग़ में कई दिनों से कोंध रही थी के आखिर उन औरतों का इसके प्रति क्या एहसास होता हैं जो अपनी कोख को किराए पर देती हैं. भले विज्ञान कितना ही विकसित क्यों न हो जाए लेकिन ममता का जो प्रकृतिक एहसास हैं उसे विज्ञान कभी भी नहीं दे सकता..अगर बंजर ज़मीन को केमिकल के द्वारा उपजाऊ बनाया जाता हैं तो उसकी फसल में केमिकल के अंश जरूर मिलते हैं ठीक वैसे ही आज पैसे के दम पर आने वाले समय के लिए बहुत कुछ ऐसा कर रहें हैं जो प्रकृति और समाज के लिए विधवंसक हैं.. खैर इन्ही सब बातों के प्रश्नों को लेकर मैं एक ऐसी जगह पहुंचा जहां मेरी मुलाक़ात एक सेरोगेसी से हुई जो झोपड़पट्टी की कॉलोनी के एक चाल नुमा घर में अपने दो बच्चों और पति के साथ रह रही थी..स्लम एरिये में आना मेरे लिए नया नहीं था.. इसीलिए हमें यहां आने में हिचकिचाहट नहीं हुई लेकिन फिर भी हम अपनी नाक भौ को सिकोड़ते हुए रंजन के शेड तक आ पहुंचे थे.. दिनेश ने मेरा परिचय रंजन से कराया जो हमारे आने का इंतज़ार कर रहा था गर्मी और सफुकेशन के बाबजूद भी हम रंजन के शेड में दाखिल हुए लगभग दस बाई पचीस के प्लाट पर रंजन ने लकड़ी और फट्टों से अपना शेड नुमा घर बना रखा था पहले कमरे से दाखिल होते हुए पीछे के कमरे में हमे रंजन लेकर पहुंचा जो ठीक शहर के...
मैं उसके असली माता-पिता से कभी नहीं मिली और मुझे नहीं पता कि वे लोग कौन हैं. मुझें कब डिलेबरी के लिए लेबर रूम में लें जाया गया ये मुझें नहीं पता तब मैं बेहोश थी कब उन्होंने मेरी कोख से बच्चे को निकाला इसका मुझें कुछ भी नहीं पता इस लिए मैं उस बच्चे की शक्ल भी नहीं देख सकी मुझे ये भी नहीं पता कि वह गोरा था या सावला था मुझे तो यह भी नहीं पता कि वह लड़का था या लड़की जब मुझे होश आया, तो मैंने अपने पति से पूछा था के 'क्या तुमने बच्चे को देखा?
मेरे इस सवाल पर मेरे पति चुप थे हम अस्पताल के प्राइवेट वार्ड के रूम में अकेले थे मेरी डिलेबरी सिजेरीयन से हुई थी. मैं उस वक़्त जितनी उस डिलेबरी पर लाचार थी उतनी उससे पहले हुई दो डिलेबरी पर नहीं थी क्युकि उस वक़्त वो मेरे और मेरे पति के बच्चे थे लेकिन इस बच्चे को नौ महीने अपनी कोख में रखने के बाद भी हम अपना नहीं कह सकते थे क्योंकि मेरी कोख में किसी और का बच्चा पल रहा था वो लोग कौन थे कहां से थे इसका हमें कुछ पता नहीं था क्योंकि मैंने अपनी कोख किसी और के बच्चे को पैदा करने के लिए किराए पर दी थी लेकिन फिर भी वो बच्चा तो मेरी ही कोख में पला था इसलिए उससे मेरा लगाव हो गया था. उस समय मुझें ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने मेरे शरीर का कोई अंग काट कर छीन लिया हो... मैं सिसकती रही मैंने अपने डॉक्टर से भी पूछा लेकिन किसी ने उसके बारे में कुछ नहीं बताया..तब मुझें एहसास हुआ के हमने पैसों के खातिर कितना गलत कदम उठा लिया था.. भले मेरे पति उस बात को कितना भूल चुके हैं ये तो मैं नहीं जानती पर हां वो मेरी ख़ुशी में साथ जरूर देते हैं...
ये दर्द एक सेरोगेसी औरत की उस ममता का हैं जो मातृत्व का दर्द झेल कर किसी के लिए उसने बच्चे को जन्म देकर झेला हैं. जो मां अपनी कोख से बच्चा पैदा करती हैं वही इस ममता के दर्द को और एहसास को समझ सकती हैं. लेकिन विज्ञान के अविश्कार ने जहां इंफ्रटिलिटी को झेलने वाले दम्पतियों के लिए भले ही सराहनीय अविश्कार किया हो लेकिन इस अविष्कार का दुरूपयोग भी अपनी अलग दस्ता कहता हैं.
ये बात मेरे दिमाग़ में कई दिनों से कोंध रही थी के आखिर उन औरतों का इसके प्रति क्या एहसास होता हैं जो अपनी कोख को किराए पर देती हैं. भले विज्ञान कितना ही विकसित क्यों न हो जाए लेकिन ममता का जो प्रकृतिक एहसास हैं उसे विज्ञान कभी भी नहीं दे सकता..अगर बंजर ज़मीन को केमिकल के द्वारा उपजाऊ बनाया जाता हैं तो उसकी फसल में केमिकल के अंश जरूर मिलते हैं ठीक वैसे ही आज पैसे के दम पर आने वाले समय के लिए बहुत कुछ ऐसा कर रहें हैं जो प्रकृति और समाज के लिए विधवंसक हैं.. खैर इन्ही सब बातों के प्रश्नों को लेकर मैं एक ऐसी जगह पहुंचा जहां मेरी मुलाक़ात एक सेरोगेसी से हुई जो झोपड़पट्टी की कॉलोनी के एक चाल नुमा घर में अपने दो बच्चों और पति के साथ रह रही थी..स्लम एरिये में आना मेरे लिए नया नहीं था.. इसीलिए हमें यहां आने में हिचकिचाहट नहीं हुई लेकिन फिर भी हम अपनी नाक भौ को सिकोड़ते हुए रंजन के शेड तक आ पहुंचे थे.. दिनेश ने मेरा परिचय रंजन से कराया जो हमारे आने का इंतज़ार कर रहा था गर्मी और सफुकेशन के बाबजूद भी हम रंजन के शेड में दाखिल हुए लगभग दस बाई पचीस के प्लाट पर रंजन ने लकड़ी और फट्टों से अपना शेड नुमा घर बना रखा था पहले कमरे से दाखिल होते हुए पीछे के कमरे में हमे रंजन लेकर पहुंचा जो ठीक शहर के...