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चंदोस बोस
मैं वैदिक सीखने तब नया-नया कोलकाता आया था । जिस मेडिकल कॉलेज में मेरा दाखिला हुआ था वहां होस्टल फुल हो चुके थे। इसके चलते मुझे कमरा किराए पर देना पड़ा। सबसे निचली मंजिल सदा ही खाली पड़ी रहती थी मकान मालिक उस पर ताला जड़कर गांव में रहने चला गया था उपाय मंदिर पर दो कमरे थे एक महीना और सामने वाले महोदय की अभी मुंह दिखाई नहीं हुई थी उनके कमरे पर भी पर भी ताला जड़ा हुआ था बाहर नेम प्लेट पर लिखा था चंद्र बोस Bsc. M.A.
खैर मेरे कौशल से 4:00 बजे वापस आया तो देखा दोनों कमरों के बीच के पतले गलियारे में एक महोदय मेज कुर्सी रखकर चाय पी रहे थे उन्होंने मुझे अपने गोल फ्रेम वाले चश्मे से गोरा और बिना बोले फिर चाय पीने लगे उनके सामने मेज पर एक अंग्रेजी पुस्तिका भी थी। उस पत्नी गलियारे में मेरे निकलने की कतई जगाना थी मेरे दरवाजे से सटी पड़ी उनकी मैच किसका है ना कि सकती थी और उन महोदया को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था।
"महोदय!"मैंने प्रेम से उन्हें पुकारा।
जवाब तो दूर उनकी आंखों की कनीनिका तक नहीं ली।
"महोदय!!!!!!!" मैं कुछ रुष्ट हुआ।
परंतु कोई जवाब नहीं।
"महोदय;!!!!!!!!!!????"मैं इस बार तेज पसीजता से बोला।
"जी?" उनके कोमल स्वर नो मेरे कानों में मिस्रिया गोल दी। पूरा गलियारा घेरकर को इस तरह अनजान बने थे मानों कोई मासूम आप खुद बालक हो। मुझे इस तरह की मासूमियत पर चढ़े लगी।

"बताऊं क्या आपने अपनी बैठक यहां क्यों लगा रखी है बताना चाहेंगे???" परंतु अभी कुछ नहीं समझे।
"अरे मैंने कहा आपने यह दस्ता खान यहां से हटाइए!!!" आखिरकार वे साहबजादे उठे और अपनी फोल्डिंग वाली मेज कुर्सी अंदर ले गए मैं भी चिढ कर अपने कमरे में जा घुसा ।

यह किस्सा तोता उनसे मिलन का पर उनका पूरा परिचय मुझे दिवाली से 1 हफ्ते पहले नुक्कड़ की एक परचून की दुकान पर। वह परचून की दुकान पर खड़े पान खा रहे थे कि मुझे देखकर मुझसे बातें करने लगे बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि
उनका पूरा नाम चंदौस बॉस है डिग्रियों में उन्होंने बीएससी और m.a. की डिग्री प्राप्त की है पर असल में वह कोई अध्यापक नहीं है दरअसल वह तो एक लेखक हैं। यह जानकर मुझे अच्छा लगा कि वह एक लेखक है पर बाद में वह मेरे कान के समीप आए और बोले कि लेखक तुम्हें दुनिया के सामने हूं पर असल में तो मैं एक......
"असल में आप कौन हैं?" मैंने हैरत से पूछा।
उन्होंने बताया कि असल में तो वह एक जासूस है इस बात पर मुझे हैरत की बजाय हंसी आ गई और मैं हंस हंस के लोटपोट हो गया। साधारण आदमी मेरे इस प्रतिक्रिया पर गुस्सा होना चाहिए था परंतु वह कुछ अलग ही थे गुस्सा होने की बजाय वह मेरी इस बात पर इस तरह मुस्कुराए मानो मैंने कोई नादान व अबोध बात की हो।
यह सब यूं ही चलता रहा धीरे-धीरे मैं उनको बड़ा भाई मानने लगा था उनकी बेवकूफी भरी बातें अब मुझे अच्छी लगने लगी थी वह मेरे घर आकर मुझे कविताएं सुना देते उनकी कविताओं में कोई रस यह कोई मतलब नहीं होता था परंतु फिर भी जिस तरह वह पूरा दिल लगाकर मुझे अपनी रचनाएं सुनाते थे मैं भी कान खोल कर उनकी बातों को सुनता था और झूठी ही सही पर खूब तारीफें भी करता था।
आप जैसे उस दिन की बात ही ले लीजिए । वो मेरे घर पर आकर बैठे मैंने उन्हें गुलाब जामुन खिलाएं ।और फिर वो बोले "मेरी नई कविता सुनना चाहोगे?"
मैं कभी ना तू ने मना कर पाया था और ना ही उस दिन कर पाया तो मैंने हामी भर दी।
उन्होंने अपनी ऊटपटांग सी कविता प्रारंभ की।
"मैं तो हूं लेखक,
तू है लेखक की रानी
रानी को दे दो आम और पानी
मैं तो हूं लेखक
तू है लेखक की नानी
लेखक को कह दो कोई कहानी
मैं तो हूं लेखक
तू है लेखक की देवरानी
पछताएगी अगर झूठ की बात ना मानी....!"

"वाह वाह वाह वाह मजा आ गया मजा आ गया!!!" मैंने बीच में ही झूठी तारीफों के पुल बांधे आंखें का मैंने चैन की सांस ली के कविता में जेठानी के आने से पूर्व भी हम बाहर आ गए। हम दोनों फिर कमरे से निकलकर बालकनी के गलियारे में जाकर खड़े हो गए। आज दीपावली का पर्व था पूरा आकाश आतिशबाजी और पटाखों की ध्वनि व रोशनी से गूंजायमान था। वह दृश्य सचमुच मनोरम था।
उस दृश्य को देखकर चंदू साहब को अपने अतीत की कुछ यादें याद आ गई और वह उन झलकियां को शायद मेरे साथ बांटना चाहते थे। जैसे ही मुझे इस इसका आभास हुआ कि चंदू साहब मुझसे कुछ कहना चाहते हैं मैंने तुरंत उनसे पूछा
"क्या कोई बात है जो आपको मन ही मन खाए जा रही है?"
"यही सोच रहा था कि लोग इतना प्रदूषण क्यों फैलाते हैं मुझे तो प्रदूषण फैलाना कतई पसंद नहीं है।"
"पर दिवाली पर तू पटाखे चलते ही हैं मुझे नहीं लगता इसमें कुछ अनुचित है!" मैंने अपना मत रखा!
"हां शायद आप सही कह रहे हैं देवधर बाबू परंतु मुझे इस प्रदूषण से नफरत है और इसका कारण है कि इसी प्रदूषण और गंदी हवा ने मेरी किसी अपने की जान ले ली थी! मेरे बेटे को अस्थमा था तभी से मैंने आतिशबाजी छोड़ दी मेरी पत्नी पहले ही गुजर गई थी उसके बाद तो मेरा बेटा ही बचा था पर वह भी इस सांस की बीमारी के चलते दिवाली के दिन इस धोनी की वजह से ही....."
इसके आगे वह नहीं बोल पाए उन्होंने अपना चश्मा उतारा आंसू पहुंचने लगे। मैं उनकी व्यथा समझ सकता था लेकिन यह कैसा समय था कि मैं उनसे कुछ कह भी नहीं पाया। उस दिन मैंने समझा कि किसी हंसमुख खिलखिलाते बुद्धू और भोले चेहरे के पीछे भी कितना दर्द छुपा हो सकता है किसी अपने को खोने का दर्द क्या होता है कि मैं समझ सकता था क्योंकि उनके चेहरे और उनके आंसुओं से साफ झलक रहा था।

उसके अगले ही दिन हमें पता चलता है कि नीचे दो नए किरायेदार रहने आए हैं सात्विक और उसकी पत्नी नारायणी दोनों ही स्वभाव के बहुत ही ने थे पर मेरा उनसे कभी अच्छे से परिचय नहीं हो पाया क्योंकि वे दिन परीक्षा के थे और मैं उनके घर कभी ठीक से जाकर उनसे मिल नहीं पाया।
मैंने सोचा था कि परीक्षा के अंत होते ही मैं चंदू साहब के साथ उनसे मिलने जाऊंगा और परीक्षा का फल यदि अच्छा रहा तूने मिठाई भी अवश्य खिलाऊंगा।


मेरी जिंदगी एकदम ही पटरी पर थी अपनी पढ़ाई अच्छा दोस्त अच्छा घर और क्या चाहिए था? प्रभु श्याम पता चला कि नीचे रहने वाले 7 पक्का तो हो गया है और उनकी पत्नी नारायणी लापता है इस्पेक्टर ताराचंद ने यह केस का जिम्मा उठाया था।
मेरे अलावा एक इंस्पेक्टर ताराचंद ही थे जिन्हें यह मालूम था कि चंदू साहब असल में एक खुफिया जासूस है। चंदू साहब ने भी पूरे जोश में ताराचंद्र को वास्ता दे डाला कि यह केस तो वे ही सो जाएंगे।
मुझे उन पर विश्वास नहीं था फर्क है वह कोशिश तो पूरे मन से कर रहे थे सुबह से शाम तक वर्षा या धूप में भी वह घर से नदारद ही रहते थे। उनकी कृतियां ना सुने मुझे 3 महीने हुआ है थे वह बस रात को सोने के लिए ही घर लौटते थे।
सर्दियों की बात है मैं उस शाम कुछ लेट हो गया था एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मुझे एक असली अस्थि पंजर घायल आना पड़ा। रात के 11:00 बज रहे थे। मैं रजाई तान कर सो रहा था रात और गहरा दी जा रही थी। ठंडी हवा से खिड़की बार-बार खुलती और हवाएं मुझे रजाई कसने पर मजबूर करती जाती थी।
मैं बेहद गहरी नींद में सो रहा था मुझे प्रतीत हुआ कि शायद दरवाजे पर एक हल्की सी दस्तक हुई पर नींद ने मुझे कोई भी प्रतिक्रिया करने से मना कर दिया था। अचानक दस्तक तेज हो गई ...खट खट खट खट!!!
मैं उठ बैठा। मेरी आंखों में नींद लबालब थी मैंने उठकर द्वार खोलें।
यह क्या??!
सामने तो कपड़ों में स्वेटर से लेते चंद्र बोस अजीब भाव से खड़े हुए थे परंतु प्रश्न तो यह था कि इतनी रात को ही यहां क्या कर रहे थे?

"अ....आप यहां??"मैं हकलाया।
"माफ कीजिए इतनी रात्रि में कष्ट दिया। पर क्या आप यह जो अस्थि पिंजर लेकर आए हैं मैं कुछ देर के लिए ले जा सकता हूं?"

मैं उनकी इस असमय विचित्र फरमाइश पर ठिठक गया।

TO BE CONTINUE.....
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