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और वह चली गई।
जीवन को अपने तरीके से जीने का सबका अधिकार है।यह जीवन मेरा है,भावी जीवन साथी के चयन के अधिकार को कोई मुझसे कैसे छीन सकता है। यह विचार थे मेरे अंकल की बेटी के,जो मेरी दीदी की सहपाठी व दोस्त थी।मैं उनहें दीदी कहता था।अंकल पापा के साथ ही अच्छे पद पर कार्यरत थे और कुछ ही दूरी पर रहते थे।मैं अक्सर अपनी दीदी से कहता था कि वह आपकी सहेली कैसे बन गई। और वह भी पक्की सहेली।दीदी उत्तर देतीं हम स्वयं के आचरण को संयम में रखें।वह हमारी जिम्मेदारी है।
कई बार वे हमारे घर दीदी के साथ आईं। घर आने पर वह कहती थी कि हर काम तुम मम्मी पापा से पूछकर कैसे कर लेते हो।दीदी कहतीं कि माता-पिता की खुशी में मेरी खुशी है और वह कुछ गलत मार्गदर्शन थोड़ा ही देंगे।
वह कहती कि माता पिता को अपने समाज,धर्म और जाति की चिन्ता है।उनकी खुशी उन बंधनो में जकड़े रहने और जातिगत नियमों के पालन करने में है।
बात चार वर्ष पहले की है।उन दिनों वह कालेज में स्नातकोत्तर के प्रथम वर्ष में थी। एक सुबह सात बजे पापा के पास अंकल का फोन आया कि हौस्पिटल चलना है।बिटिया का ऐक्सीडैंट हो गया, वह हौस्पिटल में है।पापा के साथ मैं भी गया।वहां जाकर देखा तो हमारे पैरों के तले जमीन निकल गई।वह मृत पड़ी थीं ।डाक्टर ने बताया कि एक कार दुर्घटना में सभी चार लोगों की मृत्यु हो गई है।अंकल का रो रोकर बुरा हाल था।किसी तरह घर फोन कर बताया।
हौस्पिटल की औपचारिकता पूरी कर उन्हें घर लाया गया।
मालूम हुआ कि वह अपने भाई को यह कहकर गई थी कि मेरे मित्र का जन्मदिन है। क्या बीती होगी उस पिता पर जिसने बाईस वर्ष की नौजवान कन्या का कन्यादान न कर अपने हाथों अंतिम संस्कार किया। कितने अरमान होंगे उस पिता के मन में।उनकी भावनाओ को कौन समझ पाएगा। अल्हड़पन और नादानी मे माता पिता को नजरअंदाज करना बहुत ही अवांछनीय काम है।
इस घटना से यही प्रेरणा मिलती है कि सदैव माता पिता की अनुमति व मार्गदर्शन प्राप्त कर काम करें।
(यह बिल्कुल सच्ची घटना है,अंकल की बेटी का नाम कारणवश नहीं लिखा है जिससे उस परिवार को ठेस न पहुंचे।)

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