...

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एक खुशी
कभी कभी एक ऐसी खुशी
मन में छुपके से आती है
मानो जैसे किसी नदी का पानी
बाँध तोड़ कर लहलहा के आता है
और दुःखों की सारी बस्तियां
भींग कर पानी पानी हो जातीं हैं

दर्द तो सब से पहले बह जाता है
द्वेष को भी इस बार किसी बिल में
छुपने का मौका नहीं मिलता
और दुश्मनों से जो दुश्मनी है
जो बड़े ठेठ से रहती है
और लगभग सभी भवों पर
अपना हुक्म चलाती है
वो भी डूब कर दम तोड़ देती है
मानो जैसे आत्मा मोक्ष पा जाती हो

क्षण भर के लिए ही
हृदय मतवाला हो जाता है
रोंगटे खड़े हो जाते हैं
मुस्कान चहरे पर आ जाती है
और मस्तिष्क इस भाव के
तह तक जाने मे लगा रह जाता है
फिर खुशी चली जाती है

फिर भी मेरा मानना है
इस भाव को व्यक्त करने के लिए
किसी एक त्रास्ती का
सहारा लेना ठीक नही है.

© प्रियांशु सिंह