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परिपक्वता का आधार बचपन..

मैंने युवावस्था में ज्यादातर युवाओं को अक्सर यह कहते सुना है कि_"युवावस्था से तो बचपन अच्छा था, बचपन में हम कितने बेफिक्र थे, वक्त ही वक्त था, जो मन में आया वही करते थे, मां बाप के होते फिक्र करने की जरूरत नहीं होती थी। लेकिन युवावस्था में आकर इतनी जिम्मेदारियां आ गई है, कि खुद के लिए वक्त ही नहीं मिलता। काश वो बचपन के दिन वापस लौट आते या फिर हम कभी बड़े ही ना होते।" सचमुच में क्या बचपन ईतना आसान होता है, कि कोई बड़ा ही ना होना चाहें। कभी बच्चों से पूछ कर देखा है कि उन्हें बड़ा होना है या हमेशा बच्चे बने रहना है। मुझे तो ऐसा नहीं लगता। चलिए_ सोच की गहराइयों में जाकर मंथन करते हैं...!
मेरे मापदंड के हिसाब से तो बचपन सिर्फ 5 साल तक ही बचपन होता है, उसके बाद बुद्धि का पूर्ण विकास हो चुका होता है और जीवन की भागदौड़ शुरू हो चुकी होती हैं। सुबह जल्दी उठना, स्कूल जाना, पढ़ाई करना, मां-बाप और अध्यापकों का कहा मानना, सभी बड़ों का सम्मान करना और आने वाले जीवन के लिए एक ऐसी नीव तैयार करना जिस पर उनका पूरा जीवन स्थिर रह सके। बचपन युवावस्था की नीव होती है और यदि हमने बचपन में अपनी पढ़ाई लिखाई की और जीवन को सही तरह से समझने की जिम्मेदारी लेकर उसे ठीक से निभाया हो तो युवावस्था इतनी संघर्षरत नहीं होती। जो युवा अपने बचपन की दुहाई देते हैं उनको अपने 5 साल से पहले का बचपन याद भी नहीं होगा, और जिसे वो बचपन समझते हैं वह वक्त उन्होंने सच में बचपने में ही गवाया होता है। इसीलिए उनकी युवावस्था इतनी संघर्षपूर्ण होती हैं।
असल मायने में बचपन जितना संघर्षपूर्ण होता है, उतनी ही युवावस्था संघर्ष रहित और सरल अवस्था होती हैं। बचपन को बचपन समझने की गलती युवावस्था को संघर्षपूर्ण बना देती हैं, और युवावस्था में बचपन को सरल मानने की गलती उन्हें युवावस्था में भी परिपक्वता से दूर कर देती हैं। बाल्यावस्था युवावस्था की परिपक्वता का आधार होती है जिसको मैं समझ पाने की वजह से बचपन की दुहाई देने वाले और खुद को परिपक्व कहने वाले असल मायने में परिपक्व हुए ही नहीं होते क्योंकि उन्होंने अपने संघर्ष के समय को बचपन समझा और बचपने में अपना कीमती वक्त गवा दिया।
मैंने आज सुबह ही एक किताब में पढ़ा की "ज्यादा शक्तिवान होना ज्यादा जिम्मेदार बनाती हैं" या फिर यू कहें कि "ज्यादा जिम्मेदारियां होना ज्यादा शक्तिवान बनाती है।" मैं दूसरी वाली बात से ज्यादा सहमत हूं, ज्यादा जिम्मेदारियां होना ज्यादा शक्तिवान बनाती हैं। इसी तरह से बचपन में ज्यादा जिम्मेदारियां होना युवावस्था को शक्तिवान बनाती हैं जिससे संघर्षता काफी हद तक कम होती है।
वैसे यदि हमें हमेशा शक्तिवान बने रहना है, तो जिम्मेदारियों को कभी कम नहीं होने देना चाहिए और संघर्ष को जीवन का आधार मानकर हमेशा संघर्षरत रहना चाहिए। बचपन हो या युवावस्था कोई भी अवस्था जिम्मेदारी रहित नहीं होती और ना ही होनी चाहिए। क्योंकि जिम्मेदारियां ही हमें सही मायने में परिपक्व इंसान बनाती हैं। और यह गलतफहमी है कि परिपक्वता 18 या 21 की उम्र के बाद आती है, मेरे मापदंड के हिसाब से 5 वर्ष का बालक परिपक्व हो जाता है और उसके ऊपर अपने आने वाले जीवन की जिम्मेदारियों का संघर्ष शुरू हो जाता है। हमारे देश में यह कहावत है कि मां-बाप के लिए बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं, और इस बात को बच्चे इतनी सहजता से मांग लेते हैं कि अपनी जिम्मेदारियां समझना और निभाना सिख नहीं पाते। ऐसा नहीं होना चाहिए। यदि मां बाप को अपने बच्चों को एक परिपक्व और समझदार इंसान बनाना है तो उन्हें 5 साल के बाद बच्चों को बच्चा समझना बंद कर देना चाहिए और हमेशा उन्हें उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराना चाहिए ताकि वह अपने आने वाले जीवन को व्यवस्थित कर सकें।


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© Sunita Saini (Rani)