...

10 views

तेरे शहर में

2011 की आखरी बारिश थी वो
दिन ठीक से याद नहीं
पर ये याद है कि तीन दिन से
तुम्हारे शहर में धूप नहीं निकली थी
जहां सारे ऑटो वाले स्टेशन तक
छोड़ने से मना कर चुके थे
एक रिक्शे वाले भैया ने
( तरस खाकर शायद ) हामी भरी थी
दौड़ते भागते , अपने सालों के
लगेज को उठाये पहुंची थी
प्लेटफार्म तक जैसे - तैसे

बगल में रखा था वो बक्सा
जिसमें दफन थे वो सारे अल्फाज
जो उसे कहने थे आखरी मुलाकात में
जब वो बारिश में भीगती हुई खड़ी थी
तुम्हारे घर के पास वाली दुकान के बाहर 
जिसके बाद से टेन्ट लगा हुआ था
तुम्हारे घर तक, तुम्हारे संगीत का
जो ठिठुर रहा था, उसकी तरह
तुमने इशारों में पास वाले
चाय की टपरी में आने को कहा था
जिसमें घुसने के पहले ही तुम्हारे शब्द थे
"हां, मैं नहीं बता पाया तुम्हें
सब कुछ बहुत जल्दी में हुआ
आज संगीत है मेरा ... माफ कर दो"

स्तब्ध खड़ी थी वो
शब्द क्या, आंसू तक नहीं निकले थे
याद है? तुमने उसके कंधों पर
अपने दोनों हाथ रखकर कहा था,
"तूने कहा था ना , तू बाकियों जैसी नहीं है
मजबूरी है मेरी, आज साथ चाहिये तेरा"
वो जानती थी तुम क्या कह रहे हो

तुम्हारे ताऊ जी, उसे तुमसे पहले
नजर आ गये थे
जल्दी घबरा जाते हो तुम
ये भी जानती थी 
उसने कोशिश की थी मुस्कुराने की
जब गलती से आंसू छलक गये थे,
"मैंने बेस लोकेशन मुंबई चुनी है
तीन दिन में ज्वाइनिंग है
फ़िक्र मत करो ! खुश रहना"
कहते ही चली गयी थी वो
बिना एक बार भी पीछे देखे
बहुत कुछ कहना था तुमसे
पर तुम्हारे चेहरे से उस दिन
जो हमारे एक ना हो पाने की तड़प गायब थी ना
उसने सारे अल्फाजो का गला घोंट दिया था
उन आखरी अल्फाजो का लगेज उठाये
उस शाम अलविदा कहा था तेरे शहर को
आज सालों बाद उन्हीं अल्फाजों के सहारे
लौटी है वो, उन्हें बसाने तेरे शहर में
© शिवप्रसाद