...

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ये शाम
सुनो,
अगर किसी रोज़ मैं चाहूँ थोड़ा पगला जाना तो रोकना मत मुझे,बस मुस्कुरा कर अपनी मंजूरी दे देना.. इस बदलते मौसम की गुलाबी शाम और मेरी मोहब्बत की ख़ातिर..जानती हूँ मोहब्बत में दूरियाँ महज़ एक शब्द बराबर होती है..पर जानते हो कभी-कभी झल्ला सी जाती हूँ मैं इन्ही दूरियों पर.. मैं और तुम दो अलग-अलग शहरों में जो हैं,पर फिर ये सोच कर खुद को बहला लेती हूँ कि हमारे सर पर सजा आसमान एक है..तुमको छूकर आती हुई हवा कभी तो मुझसे टकराती होगी..उस हवा को महसूस करती हूँ तो लगता है कि तुम्हारी बाँहों में सिमटी हुई हूँ,हमारी हर उस मुलाकात की तरह जो तुम पूरी करते हो मेरे शहर आकर..मेरी मोहब्बत और मेरे पागलपन में शायद इस एक शहर भर सा ही तो फ़ासला है..मैं और तुम अगर एक ही शहर में होते तो सोचो मोहब्बत के कितने रंगों से गुलज़ार होती हमारे शहर की हर एक शाम...पर फिर सोचती हूँ कि अगर तुम भी मेरे ही शहर से होते तो मैं ये ख़त कैसे लिख पाती? दूसरे ही पल ये भी लगता है कि अगर हम एक ही शहर से होते तो मुलाकातों का दौर शायद हर रोज़ चलता लेकिन क्या फिर इंतेज़ार का वो एहसास बेमानी नहीं हो जाता जो मैं आज महसूस करती हूँ...कभी कभी शाम ढले जब अपने घर की छत पर बैठे खत लिखती हूँ तुम्हें तो चाँद को देखते मन में ख़्याल आता है कि तुम भी अपने शहर से किसी रात यूँ ही निहारो उस चाँद को जो हम दोनों के आसमान में है..फिर सोचती हूँ कि क्या उस चाँद को निहारते वक़्त तुमने एक पल को भी सोचा होगा कि कैसी बेइंतेहा मोहब्बत मैंने हर रोज़ तुम्हारे नाम की है,बिना किसी स्वार्थ बिना किसी वज़ह के..मोहब्बत ऐसी नहीं कि ख़त लिखूँ और ज़ज़्बात पूरे हो जायें और फिर मुझे ऐसी ही किसी शाम एक मोहलत मिल जाये खुद से इश्क़ निभाने को..मोहब्बत जो कि तो वो भी ऐसी की झुकूं तो ख़ुदा का सज़दा लगे.. हमारे इस एक आसमान के तले किसी रोज़ तुम आओ मेरे शहर और मैं मिलूँ तुमसे तुम्हारी ही पसंद की हल्की आसमानी सी साड़ी पहने उन चूड़ियों को खुद पर सजाते हुए जो हमने खरीदी थे तुमसे बाते करते हुए इसी

किसी सिंदूरी सी शाम में ...!!

#अरु