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अपने बारे में ( परिचय)
मेरा नाम नागेन्द्र मणि मिश्र है। मैं उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले के उमापुर गाँव का निवासी हूँ। कविताएं लिखना और पढ़ना मेरा शौक़ है। ख़ास तौर पर हम ग़ज़लें कहते हैं। मेरी कुछ परिचयात्मक
चुनिंदा ग़ज़लें प्रस्तुत हैं।

(एक)

क्यूँ तीरगी है इतनी उजालों के इर्दगिर्द।
गुमसुम खड़े जवाब सवालों के इर्दगिर्द।

मस्जिद के इर्दगिर्द जो कल घूमते मिले,
आते हैं अब नज़र वो शिवालों के इर्दगिर्द।

कुछ बात है ज़रूर कि दिखने लगे हैं फिर,
महलों के लोग झोपड़ी वालों के इर्दगिर्द।

मिलती ही कब है चैन की रोटी ग़रीब को,
सौ आफ़तें खड़ी हैं निवालों के इर्दगिर्द।

यूँ ले रहा है वक़्त मुसाफ़िर का इम्तिहान,
काँटे चुभे हैं पाँव के छालों के इर्दगिर्द।

किस-किस अदा से दह्र में जलवानुमा है तू,
मेले लगे हैं तेरे कमालों के इर्दगिर्द।

मुझको यक़ीन है कि पहुँच जाएँगे 'अनुज'
तेरे ख़याल मेरे ख़यालों के इर्दगिर्द।

(दो)

हर चीज़ मिलेगी मगर उल्फ़त न मिलेगी।
इस दौर में अब सच्ची मुहब्बत न मिलेगी।

क्यों काग़ज़ी फूलों में महक ढूँढ़ रहा है,
इस झूठ की बस्ती में सदाकत न मिलेगी।

इस शह्र के बाशिंदे मशीनों की तरह हैं,
इख़लास को मेरे यहाँ इज़्ज़त न मिलेगी।

अरमानों का मक़तल है जिसे कहते हैं दुनिया,
हँसने की यहाँ तुझको इजाज़त न मिलेगी।

हैं मंदिरो-मस्जिद में भी तो ख़ून के धब्बे,
अब कोई भी पाकीज़ा इमारत न मिलेगी।

तुम बाहरी दुनिया का मज़ा लूट चुके हो,
अब घर की गिज़ा में तुम्हें लज़्ज़त न मिलेगी।

इस बार ख़ताओं की मुआफी मुझे मिल जाय,
आइन्दा तुम्हें कोई शिक़ायत न मिलेगी।

(तीन)

वो फूलों की ख़ुशबू वो रंगों का मौसम।
कहाँ खो गया वो उमंगों का मौसम।

बहायेगा इन्सान का ख़ून कबतक,
हमारे नगर में ये दंगों का मौसम।

न फिर हाथ आयी वो बचपन की मस्ती,
न लौटा कभी वो पतंगों का मौसम।

दबंगों का है गुंचा-ओ-गुल पे कब्ज़ा,
दबंगों का गुलशन, दबंगों का मौसम।

मुहब्बत का नामो-निशाँ इस जहाँ से,
मिटाकर न रख दे ये जंगों का मौसम।

(चार)

कुछ बुज़ुर्गों की विरासत से मिले।
कुछ हुनर लोगों की सुहबत से मिले।

तुम हमेशा बदगुमां होकर मिले,
हम मिले हैं जब मुहब्बत से मिले।

जो सरो-समान मेरे घर में हैं,
सब बड़ी मेहनत-मशक्कत से मिले।

अड़चनें और उलझनें हमराह थीं,
हम कहाँ अब तक तबीयत से मिले।

मुख़्तलिफ़ हैं रास्ते और मंज़िलें,
जब मिले हैं आप क़िस्मत से मिले।

फिर शरारे याद के भड़के तेरी,
फिर नये ग़म तेरी फुरकत से मिले।

पर्वतों की कोख से दरिया चले,
कब मगर वापस ये पर्वत से मिले।

(पाँच)

हर बार हमीं देते हैं पैग़ामे-मुहब्बत।
तुम भी तो बढ़ाओ कभी अक़्दामे-मुहब्बत।

हम ही से ज़माने में मुहब्बत का चलन है,
हम लोग नहीं सोचते अंजामे-मुहब्बत।

दुनिया की किसी मय में उसे लुत्फ़ न आया,
होंठों से लगा जिसके कभी जामे-मुहब्बत।

हर सुब्ह सुहानी है मुहब्बत के नगर में,
पुरलुत्फ़ हुआ करती है हर शामे-मुहब्बत।

हर शख़्स की आँखों से हवस झाँक रही है,
दुनिया से न मिट जाय कहीं नामे-मुहब्बत।

तुम बन के जो आये हो मुहब्बत के तरफ़दार,
क्या देखा नहीं है कभी आलामे-मुहब्बत।

वो लोग मुहब्बत का मज़ा समझेंगे क्या खाक,
चूमा ही जिन्होंने न कभी बामे-मुहब्बत।

(छह)

बिना सोचे ही तुमने ज़ुर्म से रिश्ता बना डाला।
बड़ा बनने की ख़्वाहिश ने तुम्हें अन्धा बना डाला।

झुके कन्धे, ये पिचके गाल, गड्ढों में धँसी आँखें,
दुखों ने उम्र से पहले हमें बूढ़ा बना डाला।

हमारे हाथ का सोना भी मिट्टी ही निकलता है,
मगर मिट्टी को कैसे आपने सोना बना डाला।

न मंदिर से कोई मतलब, न मस्जिद में है दिलचस्पी,
ठगों ने अब कमाई का इसे धंधा बना डाला।

हुनर है आपका, ये हौसला है आपका ऐ दोस्त,
मेरे मुँह पर ही मुझको आपने झूठा बना डाला।

मैं उसकी ज़िद के आगे झुक नहीं जाता तो क्या करता
मेरी बच्ची ने मुझको आज फिर घोड़ा बना डाला।

तू माँ थी, कैसे ख़ाली पेट बच्चों को सुला देती,
तेरी ग़ुरबत ने आँचल को तेरे कासा बना डाला।


(सात)

घोलते हैं वो ज़ह्र कानों में।
नाम जिनका है मेह्रबानों में।

रंग, मज़हब, ज़बान और नस्लें,
बँट गये लोग कितने ख़ानों में।

सर छुपायें भी अब कहाँ जाकर,
धूप लगती है सायबानों में।

आओ पहुँचायें रोटियाँ उन तक,
भूख बैठी है जिन मकानों में।

कौन धरती का दर्द समझेगा,
अब्र रहता है आसमानों में।

जाने कितनों ने ढूँढ ली मंज़िल,
आपके पाँव के निशानों में।

फ़ोन तक लॉक हो गये लेकिन,
कोई ताला नहीं ज़बानों में।

(आठ)

न गीता पर कोई ख़तरा न है क़ुरआन ख़तरे में।
मगर दुनिया में है मासूम सा इंसान ख़तरे में।

वहाँ त्योहार की कैसे मुबारकबाद दी जाये,
जहाँ पर फूल से बच्चों की हो मुस्कान ख़तरे में।

हमेशा की तरह दुनिया खड़ी है रास्ता रोके,
क़सम तुमको मेरी ख़ातिर न डालो जान ख़तरे में।

कोई पूछे किसानों से कि उन पर क्या गुज़रती है,
कभी गेहूँ पे आफ़त है, कभी है धान ख़तरे में।

कभी मन्दिर, कभी मस्जिद को लेकर सर फुटौअल है
है इन नादानियों की वज्ह से इंसान ख़तरे में।

यहाँ हर शख़्स को कोई न कोई जंग लड़नी है,
किसी की जान ख़तरे में, किसी की शान ख़तरे में।

यहाँ पर आदमी में आदमी मिलता नहीं है अब,
पड़ी है आदमीयत की 'अनुज' पहचान ख़तरे में।

(नौ)

बेअसर होंगी सब दुआयें क्या।
मार डालेंगी ये बलायें क्या।

हमने कह तो दिया कि ज़िन्दा हैं,
इसके आगे भी कुछ बतायें क्या।

हम तो अपना वजूद हार गये,
और अब दाँव पर लगायें क्या।

क्या ये कह दें कि हम बहुत खुश हैं,
आपसे झूठ बोल जायें क्या।

इसके आगे चली है कब किसकी,
फिर मुक़द्दर को आज़मायें क्या।

हाथ ख़ाली थे, अब भी ख़ाली हैं,
फिर तेरे दर से लौट जायें क्या।

आप कहते हैं हमसे रोना मत,
अपनी हालत पे मुस्कुराएं क्या।

(दस)

किस तरह फ्रेम की तस्वीर बदल जाती है।
देखते-देखते तक़दीर बदल जाती है।

छोड़ जाता है कभी बीच भँवर में राँझा,
बात से अपनी कभी हीर बदल जाती है।

क़ैद से मुझको रिहाई तो नहीं मिल पाती,
बस मेरे पाँव की जंज़ीर बदल जाती है।

टूट जाता है हर इक अहदे-सफ़र राही का,
रुत अगर हसरते-रहगीर बदल जाती है।

रात को ख़्वाब में लगता है जहाँ अपना है,
सुब्ह आती है तो ताबीर बदल जाती है।

ज़ुर्म तय होता है औक़ात से मुज़रिम की 'अनुज'
हैसियत देख के ताज़ीर बदल जाती है।

(ग्यारह)

हम भी ख़िदमत कर रहे हैं शायरी की।
ये कोई जागीर थोड़ी है किसी की।

कर रहा है तू अँधेरों की हिमायत,
भीख माँगेगा किसी दिन रोशनी की।

क्या नहीं कर डालते हैं दोस्त ही अब,
क्या ज़रूरत है किसी से दुश्मनी की।

रास्ता उनकी रिहाई का निकालो,
जी रहे हैं क़ैद में जो मुफ़लिसी की।

आ चुका है वक़्त फिर संजीदगी का,
हो चुकी है इन्तिहा अब दिल्लगी की।

हँस पड़े तारे गगन में, चाँद निकला,
आ भी जायें अब कमी है आप ही की।

पूछिए मत लोग क्या-क्या पी रहे हैं,
इस सदी में आड़ लेकर तिश्नगी की।

(बारह)

तेरी रहमत से अचानक दूर हो जाऊँ न मैं।
एक मालिक से कहीं मज़दूर हो जाऊँ न मैं।

मेरे मालिक एक छोटी सी दुआ करले कुबूल,
रहमतें पाकर तेरी मग़रूर हो जाऊँ न मैं।

झिलमिलाता सा दिया हूँ ख़ौफ़ है दिल में तो बस,
देखते ही देखते बेनूर हो जाऊँ न मैं।

इस क़दर तू इम्तिहाने-सब्र मत ले अब मेरा,
दर से उठने के लिए मजबूर हो जाऊँ न मैं।

उससे मिलने की दुबारा इसलिए कोशिश न की,
उसके हाथों फिर कहीं रंजूर हो जाऊँ न मैं।

उसने जब पर्दा हटाया फेर ली मैंने निगाह,
ख़ौफ़ ये था जलके कोहे-तूर हो जाऊँ न मैं।

आइना मुझको बनाया है तो रख महफूज़ भी,
पत्थरों की ज़द में आकर चूर हो जाऊँ न मैं।

(तेरह)

आख़िर वो बात तो ही गयी जिसका डर रहा।
पगड़ी ही बच सकी न तो काँधे पे सर रहा।

मैं भी तमाम उम्र सरे-रहगुज़र रहा।
रस्ता ही ख़्वाबगाह था, रस्ता ही घर रहा।

साथी न कोई और न तो राहबर रहा।
बस मेरा हौसला ही मेरा हमसफ़र रहा।

कल तक तो कह रहा था निभायेगा मेरा साथ,
अब क्या हुआ जो बात से अपनी मुकर रहा।

यूँ ही उसे सलाम नहीं कर रहे हैं लोग,
सौ मुश्क़िलों के बाद भी जारी सफ़र रहा।

पहले-पहल मैं निकला जो परदेस के लिए,
रस्ते पे पाँव थे मगर आँखों में घर रहा।

मैं ख़ुद को मानता रहा दुनिया का बादशाह,
जब तक कि माँ की गोद में मेरा ये सर रहा।

(चौदह)

अपनी उल्फ़त को नफ़रत पर भारी रख।
दिल में हरदम प्यार-मोहब्बत यारी रख।

आसानी हो लेगी इक दिन साथ तेरे,
जंग तू अपनी हर मुश्क़िल से जारी रख।

गर तेरा मक़सद है क़त्ल अँधेरे का,
हाथों में किरनों की तेज़ कटारी रख।

घटतौली कर देगा इश्क़-मुहब्बत में,
दिल में अपने मत कोई व्यापारी रख।

मैं भी तेरी मुश्क़िल आसाँ कर दूँगा,
तू भी मेरी राह में मत दुश्वारी रख।

किस मज़बूरी में ये वादा टूटा है,
मेरे आगे अपनी हर लाचारी रख।

यारों को भी थोड़ा-थोड़ा दुश्मन जान,
दुश्मन से भी थोड़ी थोड़ी यारी रख।

आज के दिन आ साथ चमन की सैर करें,
जाने-तमन्ना इतनी बात हमारी रख।

(पन्द्रह)

रात के सुनकर हवाले रो पड़े।
देखकर मंज़र उजाले रो पड़े।

ख़ुश बहुत थे देखकर बुज़दिल मगर,
मौत पर उसकी ज़ियाले रो पड़े।

मस्जिदों पर ज़ुल्म होता देखकर,
चर्च, गुरुद्वारे, शिवाले रो पड़े।

भूख से बच्चे ने दम तोड़ा उधर,
और इधर फेंके निवाले रो पड़े।

इस क़दर काँटे बिछे थे राह में,
फूटकर पाँवों के छाले रो पड़े।

जाने किसकी बात मन को छू गयी,
क्यों अचानक हँसने वाले रो पड़े।

दर्द जब हद से मेरा गुज़रा 'अनुज',
दिल नहीं सँभला सँभाले रो पड़े।

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(परिचय)
डॉ. अनुज नागेन्द्र
पूरा नाम: डॉ. नागेन्द्र मणि मिश्र
तखल्लुस : अनुज
जन्मतिथि: 01/10/1976
सन 1995 से नियमित लेखन
विधाएँ : ग़ज़ल, नज़्म, दोहे, कतआत, छंद, अवधी आदि।
पिता का नाम : स्व.हीरामणि मिश्र
पता : ग्राम - उमापुर, पोस्ट- लालगंज, ज़िला-प्रतापगढ़।
शिक्षा : एम. ए., आई. जी.डी. (मुम्बई), अमेरिका की यूनिवर्सिटी से पी.एच. डी. की मानद उपाधि।
सम्प्रति : अध्यापक, मुनीश्वरदत्त इण्टर कॉलेज, मान्धाता- प्रतापगढ़।
एक ग़ज़ल संग्रह "छाले रो पड़े" प्रकाशनाधीन।
अपने अनुज प्रकाशन से 25 से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन/संपादन।