"यादों की सरगम"
आषाढ़ की एक दोपहर थी...पिछले वर्ष में आये भीषण बाढ़ ने बहुत तबाही मचाई थी,औऱ तब बाढ़ की विभीषिकाओं से बचने के लिए उस नवगठित राज्य में सरकार ने नदी के कगारों को कटने से बचाने के लिए इन्हें बड़े बड़े बोल्डरों से बांध दिया था...और नदी के कगारों पर वे दोनो इन्ही बोल्डरों में बैठे थे,गूलर के पेड़ की छांव में... पास में ही पड़े उन दोनों के स्कूल बैग छुपी नज़रों से उनकी हर हरकतों का मज़ा ले रहे थे।
वे दोनों थे देव और सोहणी।
नदी की धारा अपने ही मगन में बह रही थी....और बह रहा था वो ठंडा झोंका हवा का,जिससे सोहणी की जुल्फें बेतरतीबी से इधर उधर हो रहे थे और सोहणी उन्हें समेटने की असफल चेष्टा बार बार कर रही थी ।
पता है सोहणी, मैं न हमेशा से ये सोचा करता था,की पता नही तुमसे कभी कह पाऊंगा भी या नही ,पर तुमने इसे कितना आसान बना दिया, एक बड़ा सा थैंक्स यार मेरी ज़िंदगी को इतना खूबसूरत बनाने के लिए !!
तुम फिर से शुरू हो गए।
ये कहते हुए वो अपने दोनों पैरों को लम्बा कर के पसार ली...और देव उसकी गोद मे अपने सर को रख कर अधलेटे अवस्था मे उसके चेहरे और चेहरे पर बिखरी हुई उसके लटों को अपलक दृष्टि से निहारने लगा ...
वे दोनों थे देव और सोहणी।
नदी की धारा अपने ही मगन में बह रही थी....और बह रहा था वो ठंडा झोंका हवा का,जिससे सोहणी की जुल्फें बेतरतीबी से इधर उधर हो रहे थे और सोहणी उन्हें समेटने की असफल चेष्टा बार बार कर रही थी ।
पता है सोहणी, मैं न हमेशा से ये सोचा करता था,की पता नही तुमसे कभी कह पाऊंगा भी या नही ,पर तुमने इसे कितना आसान बना दिया, एक बड़ा सा थैंक्स यार मेरी ज़िंदगी को इतना खूबसूरत बनाने के लिए !!
तुम फिर से शुरू हो गए।
ये कहते हुए वो अपने दोनों पैरों को लम्बा कर के पसार ली...और देव उसकी गोद मे अपने सर को रख कर अधलेटे अवस्था मे उसके चेहरे और चेहरे पर बिखरी हुई उसके लटों को अपलक दृष्टि से निहारने लगा ...