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ठीक हूं
एक उम्र के बाद आदमी शान्त होने लगता है, भागता हुआ सा शान्त। भागता हुआ सा शान्त आदमी बहुत खतरनाक होता है। आदमी रूक नहीं सकता, उसे रुकने नहीं दिया जाता। वह रुक जाए तो दुनिया का बोझ मालूम पड़ता है। भागते-भागते वह भीतर से खाली होने लगता है। आस-पास स्नेह ढूंढता है जो दोस्तों से नहीं मिलता, दोस्त उलूल-जुलूल की बातों में फँसा कर खालीपन टाल सकते हैं, खत्म नहीं कर सकते।

स्नेह खोजते आदमी से सुंदर कुछ भी नहीं, स्नेह खोजते आदमी से बुरा कुछ भी नहीं। आदमी को, एक समय आने पर अपनी माँ से दूर कर दिया जाता है। उसका कमरा अलग कर दिया जाता है, और उसे आदमियों की श्रेणी में धकेल दिया जाता है जो कठोर मालूम होते हैं। माँ से सिर्फ रसोई तक की बात होने लगती है। माँ के स्नेह की भूख आदमी को सारी उम्र एक खालीपन की और धकलेती है।

आदमी उस स्नेह को प्रेमिका में खोजता है और उसके साथ बच्चा होने लगता है। आदमी का बच्चा होना माँ के सिवा किसी को स्वीकार नहीं, प्रेमिका को भी नहीं। प्रेमिका कभी भी माँ नहीं हो सकती, उसकी अपेक्षाएं हैं, माँ की कोई अपेक्षा नहीं होती।

आदमी फिर आदमी होने लगता है और ढोने लगता है अपने आदमी होने का बोझ। मैंने किसी आदमी से "कैसे हो?" का उत्तर में "ठीक हूं" के अलावा कुछ नहीं सुना।

बाकी सब बढ़िया।