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शब्द एक मौन...
मैं जो कुछ भी लिख रही हूं या आज तक मैंने जो कुछ लिखा, असल मैं वह मेरे विचार और शब्द नहीं थे। असल में संसार में जो कुछ भी जिसने कोई शब्द या विचार लिखा ; वो विचार उस व्यक्ति का नहीं था l बल्कि वह शब्द और विचार उसे किसी और व्यक्ति से या विचार से आए । उन विचारों से व्यक्ति का आचारण तो कभी आचरण से विचार उभर कर बाहर आए।

वह आचरण भी व्यक्ति का नहीं था, वह आचरण और विचार था एक पार्सनलिटी या परसोना ( मुखौटा) का।

संभवतः यही कारण है व्यक्ति हमेशा खाली या रिक्ति महसूस करता है।

यही दूसरी ओर यह बात मालूम होती हैं, संसार में कोई व्यक्ति किसी को कुछ भी देने में असमर्थ हैं। न संसार किसी व्यक्ति को कभी कुछ दे सका न कोई व्यक्ति संसार को। क्योंकि दिया वह जाता है जिस पर आपका अधिकार हो।

यहां तो स्थिति ऐसी है कि हमारे विचार और आचरण पर भी हमारा अधिकार नहीं। यह भी किसी और विचार, देश, संप्रदाय, संस्कार, धर्म, कुल, संस्कृति, विरासत, लिंग, स्थान, परिवेश, व्यक्ति, धारणाओं, और प्रकृति की देन है।

जीवन बहुत ही सुलझा हुआ है, पर व्यक्ति ने इसे इतना जटिल बना दिया है कि वह सुलझी हुई चीजों को उलझाने पर तुला है।

आज का युग न जाने किस विकास की ख़ोज में निकाला हैं कि वह विकास ही उसका पतन बनता जा रहा है। आज व्यक्ति के पास सब के लिए टाइम है पर खुद के लिए नहीं।आज का इंसान सबकी ख़ोज में हैं पर खुद की ख़ोज करने में असमर्थ हैं।

इंसान दुनिया में तमाम बेहिसाब नायब चीज़ें ख़ोज निकालेगा पर जब तक वह स्वयं में आनंद को नहीं ख़ोज लेता तब तक ; तमाम शोहरत,आविष्कार सब गर्द से ढंकी किताब की भांति हैं।सब व्यर्थ है, सार्थक कुछ नहीं।

हजारों गृह, लाखों सौरमंडल, सहस्त्रों ब्राह्मण भी इंसान को वह स्त्रोत ख़ोज कर नहीं दे सकते; जो स्त्रोत उसके स्वयं के भीतर इन सब से महान सत्ता लिए बैठा है। भीतर के शून्य के आलावा संपूर्ण और परिपूर्ण कुछ भी नहीं है।

शून्यता ही परिपूर्णता का स्त्रोत है प्रेम का स्त्रोत है इसके विपरित प्रेम ही शून्यता का उदगम है। शून्यता ही उदगम है महाकाल का और यहीं अंतिम छौर भी है।

शून्य से परे न कुछ रहा है कभी
न कभी कोई रह सकता है
शून्य में शब्द बन जाता है मौन
शून्य में जाकर ही
एक शब्द मौन को जिया जा सकता है
इस पूर्णता को जिया जा सकता है
एक शब्द मौन...


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