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चंपा का पेड़
कुछ मास पहले मेरे सपने में एक चंपा का पेड़ आकर बोला, ‘‘मेरे बारे में भी एक कहानी लिखना।’’ मैंने सोचा यह कौन-सा चंपा का पेड़ हो सकता है ? हमारे घर के पिछवाड़े एक चंपा का पेड़ था, उसके आस-पास लंटान की घनी झाड़ी थी।

मेरा भाई जो तब दस बरस का था, एक शाम लंटान के फूल तोड़ता हुआ उस पेड़ के पास खड़ा था। तब अँधेरा होने को ही था जरा आहट होने से मेरी माँ ने सिर उठाकर देखा। एक शेर मेरे भाई के सिर को फलाँग चला गया। मेरी माँ बरतन धोना छोड़कर बच्चे को घर के भीतर घसीट लायी। यह आश्चर्य की बात थी कि बच्चे को कोई आघात नहीं पहुँचा था। इसके कारण मेरी स्मृति सोरब के चंपा के पेड़ के आस-पास मँडराने लगी।

एक और भी बात उसके बारे में याद हो आयी। जब मैं बीस वर्ष का नौजवान था, तब उस पेड़ के नीचे कपड़े धोने के पत्थर पर अपनी प्रिया के संग बैठा अष्टमी का चंद्रमा देख रहा था। गाँव के और भी चंपा के पेड़ों की याद आयी। इस घर में आने से पहले मैं जिस किराये के घर में रहता था उसके आँगन में लगे चंपा के पेड़ की भी याद आयी। उस पेड़ के नीचेवाली पत्थर की बेंच पर मैं कभी-कभी बैठा करता था। उस घर को छोड़ने के एक दिन पहले रात को मैंने उसके नीचे बैठकर उससे बातें भी की थीं। वे बातें भी याद आयीं। उसके बारे में क्या लिखूँ ?

इसके बाद एक और रात को एक और सपना आया। उसमें उसने याद दिलाया मैं वही बसवनगुड़ी के पुराने घर के आँगनवाला पेड़ हूँ।
‘‘कुछ महीने पहले तुम्हीं मेरे सपने में आये थे ?’’
‘‘जी, हाँ।’’
‘‘तुमने कहा था कि मैं तुम्हारे बारे में एक कहानी लिखूँ। यह इच्छा तुम्हें क्यों हुई ?’’
उस पेड़ ने मुझे से यह पूछा ‘‘अरे भैया कहानीकार ! तुमने अपने बारे में बहुत-सी कहानियाँ लिखी हैं, भला बताओ तो क्यों ?’’
‘‘मेरे मरने के बाद भी मेरी याद लोगों के दिलों में अमर रहे, इसी व्यर्थ प्रयत्न में मैंने कहानियाँ लिखी हैं।’’
‘‘इसी कारण मेरे बारे में भी एक व्यर्थ काम कर डालो।’’
‘‘मैंने अभी तुम्हारी याद में एक-दो कहानियाँ और कविताएँ लिख डाली हैं।’’
‘‘ठीक है। इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि तुम मेरे लिए एक और कहानी लिखो और उसमें मुझे ‘कथा- नायक’ बनाओ। वैसे तुम लिखोगे, तो तुम्हें मेरे बारे में अपना स्नेह जताना पड़ेगा। तुम्हारे मन में ढ़ेरों भावनाएँ हो सकती हैं पर वह दूसरों को क्या पता ? बताने पर ही तो पता चलेगी न, व्यक्त भावनाएँ- जैसे मन में संतोष उत्पन्न करती हैं वैसे अव्यक्त भावनाएँ नहीं ! है न ? इसीलिए तो लोग साहित्य पढ़ते हैं। तुम यह नहीं चाहते न कि मैं मर जाऊँ। अगर मैं मर जाऊँ तो मुझे जिलाने को तुम अपनी संजीवनी विद्या का उपयोग करो।’’

‘‘वाह रे ! चंपा के पेड़ !’’ मैंने मन में सोचा। मैंने उससे पूछा ‘‘मरने...