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कर्मों से सावधान
*"कर्मों की एक साथ दोहरी स्थिति से सावधान"*

जो ऊर्जा (एनर्जी) हम अपने विचारों, शब्दों और स्थूल कार्यों के द्वारा किसी मानसिक या भावनात्मक प्रयोजन से किसी निश्चित दिशा में लगाते या भेजते हैं उसे ही हम सारभूत रूप में "कर्म" कहते हैं। कर्म केवल वांछिक ही नहीं होते हैं। बहुत से कर्म अवांछनीय कर्म भी होते हैं। कर्म एक अनिवार्य तथ्य हैं। ऊर्जा का विभिन्न प्रकार से गतिमान होते हुए नियोजित होते रहने को ही कर्म कहते हैं। इसलिए ही सृष्टि में कर्मों का होना एक निरंतरता है। जीवन में आदि मध्य अन्त कर्मों की ही व्याख्या है। सर्व प्रकार की गति व प्रगति, उन्नति या अवनति, सार या विस्तार आदि सबके पीछे कर्म की ऊर्जा ही काम कर रही है। सेवा क्या है? एक निश्चित प्रकार की भावदशा से किए हुए कर्म ही सेवा कहलाते हैं। इसलिए कर्मों व सेवा के कई प्रकार होते हैं। इसलिए कर्म दृश्य व अदृश्य, स्थूल व सूक्ष्म दोनों प्रकार के होते हैं।

आत्म चेतना स्वयं को जैसे जैसे भौतिक (पदार्थ) चेतना से अलग अनुभव करती हुई विकसित होती जाती है वैसे वैसे चेतना के द्वारा होने वाले भाव और विचार के द्वारा होने वाले कर्म व सेवा भी अनेक प्रकार की गुणवत्ता वाले होते जाते हैं। यह ही चेतना के विकास क्रम की बात है। विकासवाद की सूक्ष्मता के नियम पर यदि आप गौर करेंगे तो आपको इस बात का ज्ञान होगा कि कर्मों की गति समय स्थान और परिस्थिति के अनुसार बदलती जाती है। इसे और भी ज्यादा गहरे में कहें तो कह सकते हैं कि कर्मों की गति और भी ज्यादा गुहिय होती जाती है। यह प्रक्रिया स्वतः स्वाभाविक रूप से होती है। ऐसी स्थिति में मनुष्यों को; विशेषकर ज्ञानी योगीजनों को कर्मों की गति के विषय में बहुत ज्यादा सावधान रहने की आवश्यकता होती है।

असंख्य आत्माओं के द्वारा असंख्य प्रकार के कर्म के होने में असंख्य प्रकार की सुक्ष्म व स्थूल प्रक्रियाऐं होती हैं। इस प्रक्रिया की स्पष्ट कोई व्याख्या सम्भव ही नहीं है। इस प्रक्रिया के परिणाम की हम केवल मोटे तौर पर ही कहते सुनते और समझते हैं। इस सृष्टि का या यूं कहें कि इस विश्व नाटक का यही सबसे बड़ा रहस्य है। रहस्य का अर्थ होता है कि जो बात कम या ज्यादा अनुभव में तो आती है किन्तु उसकी व्याख्या अज्ञात होती है। उसकी व्याख्या के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है। इसके बारे में अध्यात्म वेत्ताओ के द्वारा केवल इतना ही कहना सम्भव हो सका है कि कुछेक प्रकार के कर्म सुखदायक होते हैं और कुछेक प्रकार के कर्म दुखदायक होते हैं। कुछ कर्म चेतना की अवस्था को ऊंचा उठाते हैं। चेतना की ऐसी ऊंचाई ही चेतना की पवित्रता का स्तर होती है। कुछ प्रकार के कर्म चेतना की अवस्था को नीचे गिराते हैं। कर्म के परिप्रेक्ष्य में इससे भी ज्यादा रहस्य की बात यह है कि कर्म जगत के पीछे भी एक अदृश्य और अनन्त ऊर्जा की प्रक्रिया काम कर रही है। ज्ञानीजनों के अनुभव कहते हैं कि दृश्य और अदृश्य जगत का जो ज्ञात पहलू है वह अत्यल्प है और जो अज्ञात पहलू है वह अधिकांश है और अत्यंत सूक्ष्म है। सार यह है कि चेतना (आत्मा) के विकास के लिए कर्मों की उच्चतम गुणवत्ता अनिवार्य है।

अध्यात्म विज्ञान (राजयोग का ज्ञान) कहता है कि सर्व प्रकार के कर्मों की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए स्वयं के शरीर, भाव और विचारों का शुद्धिकरण अत्यंत अनिवार्य होता है। तीनों स्तरों पर शुद्धिकरण की एक विधिवत प्रक्रिया करनी पड़ती है। शरीर शुद्धि की प्रक्रिया अलग है। अपने आंतरिक भाव और विचार के क्षेत्र में सचेत होकर बार बार सर्व के लिए सुख शांति के गहन भाव और विचार को पुष्पित पल्लवित करना पड़ता है। अपने अंतर्जगत में शुद्ध भाव और विचार को इतना इतने स्तर तक बीजारोपित करना होता है ताकि किसी भी परिस्थिति में किसी भी आत्मा के लिए अशुभ भाव या विचार पैदा ना हो सके। यदि आंतरिक भाव और विचार का क्षेत्र शुद्ध नहीं हुआ है तो हम कितने भी अच्छे कर्म करते रहें, फिर भी समय परिस्थिति के प्रतिकूल होते ही या बदलते ही भाव और विचार से अशुभ कर्म हो सकते हैं। बिना शुद्धि की स्थिति के हमारे द्वारा बिना चाहे भी दूसरों को दुख मिलने की पूरी संभावना बनी रहती है। एक तरफ हम अच्छे कर्मों के द्वारा दूसरों को सुख देने का प्रयास करते हैं। लेकिन दूसरी तरफ हमसे दूसरों को दुख मिलता जाता है। एक तरफ कर्मों का जमा होता जाता है और दूसरी तरफ घाटा होता जाता है। उनके जमा और घाटे के अनुपात में उतार चढाव आता रहता है। ऐसे अशुभ कर्म स्थूल रूप से नहीं होते हैं। लेकिन हम सोच और भावना के द्वारा भी दूसरों के प्रति या स्वयं के प्रति अशुभ भाव या विचार रखने से दुख देने का काम करते हैं। ऐसी स्थिति में भाव, विचार और शरीर की संयुक्त शुद्धि के बिना शुभ और अशुभ कर्मों की यह दोहरी प्रक्रिया होती रहती है।

बहुत से लोग भाव, विचार और शरीर के स्तर पर जब कर्मों की दोहरी और इतनी गहन गति के बारे में विचार करते हैं तो वे असमंजस में रह जाते हैं। वे इसलिए भी असमंजस में रह जाते हैं क्योंकि वे कर्मों के शुभता को आखिरी सीमा तक ले जाने को बहुत कठिन समझते हैं। लेकिन उन्हें यह समझ कर चलना चाहिए कि यह कठिन अवश्य है किन्तु असंभव नहीं है। इस दोहरी स्थिति से सावधान सावचेत अवश्य ही रहें किन्तु इसे चिंता के रूप से ना लें। सिर्फ स्थूल और सूक्ष्म पुरुषार्थ पर ध्यान हो। विधिपूर्वक धैर्यपूर्वक शुद्धिकरण की विधि द्वारा और राजयोग के गहन अभ्यास द्वारा कर्मों के शुभता की आखिरी सीमा तक पहुंचा जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। 🙏☝️👌😃