...

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एक ख़त तेरे नाम
तुम जब भी ये कहती हो कि नहीं चाहती तुम मेरे जैसे बनना
मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगता
यक़ीन मानो मैं रोमांचित हो जाती हूँ
मैं चाहती हूँ अपनी उड़ान ख़ुद से तय करो
तुम जब किसी सही बात पर डटी रहती हो
बेवजह की ज़बरदस्ती पर हठी रहती हो
सचमुच वो मनमर्ज़ी में मज़बूत बनी रहना
सवालों की फ़ेहरिस्त को यूँ ही बढ़ते देखना
यक़ीन मानो मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगता
मत मानना तुम ढकोसलों घिस चुके सोंच को
जो तुम्हें कहीं से कमतर होने का अहसास दिलाये
सुनो! एक्सपायर्ड हो चुके हैं अब सब
वो नवीनता जो उत्थान लाए उसे ही तुम बेझिझक अपनाना
यक़ीन मानो मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगता
क्यूँकि तुम बस इक इंसान हो
देवी और जननी कहलाना इतना ज़रूरी नहीं
ये सब तो सहूलियत का झाँसा है
ज़रूरी है तो बस ख़ुश रहकर जीना
और तुम जितनी बार भी कहो कि मुझे है दिल खोलकर जीना
यक़ीन मानो मुझसे ज़्यादा खुश और कोई नहीं होता


© Ritu Verma ‘ऋतु’