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नशे की रात ढल गयी-15
नशे की रात ढल गयी .. (15) साइंस से इंटर करने के बाद मैंने सीवान के डी ए वी काॅलेज में अचानक आर्ट्स लेने का फैसला कर लिया ।लेकिन थर्ड ईयर की पढ़ाई जब शुरू हुई तब ये लगा कि राजनीति विज्ञान लेकर मैंने थोड़ी भूल कर दी । साइकोलाॅजी का क्लास ओवर होते ही रूम से निकलती छात्राओं की भीड़ देखकर अपनी गलती का एहसास होने लगा। राजनीति विज्ञान इस मामले में एक तरह से सुखाग्रस्त क्षेत्र था ।..यह सब देख-सुनकर कुछ छात्रों ने अपना भुल-सुधार किया और राजनीति विज्ञान की मरूभूमि को त्यागकर वे मनोविज्ञान की हरी-भरी वादियों में दाखिल हो गये..संकोचवश मैं ऐसा नहीं कर पाया लेकिन जिन्दगीभर एक अफसोस रहा ...
..कुछ तो उस शहर (खगड़िया) की प्राकृतिक अबोहवा ही ऐसी थी कि संक्रमण बहुत जल्द लगता था ..और उसमें किसी भी शख्स को शायर बना देने की काबिलियत थी ..लाल-लाल फूलों से लदे गुलमोहर के दरख्तों की लम्बी-लम्बी कतारें उस शहर की खास पहचान बनती गयी थीं ..वह पलाश के दहकते हुए फूलों का शहर था..लिहाजा मैं भी बायोलाॅजी की बेजान किताबों को दरकिनार कर जिन्दगी के सौंदर्यशास्त्र में उलझता चला गया ।मेरे स्वभाव में भी कुछ वैसा ही बदलाव सा आने लगा जैसे पतझर के बाद अक्सर दरख्तों में दीखता है .. मेरे भीतर कहीं ..कुछ नये-नये से एहसास खिलने से लगे थे ..तभी से डायरी के पन्नों पर कुछ न कुछ रोज लिखने की आदत सी बनती गयी थी..लेकिन इस मामले की तह में कुछ और बातें भी थीं ..जिनके बगैर यह स्क्रिप्ट अधुरी रह जायेगी ।दरअसल,भाईसाहब और दीदी के पास रहते हुए मुझपर कभी किसी तरह की बंदिश नहीं थी । उनके अभिभावकत्व में एक किस्म की उदारता और स्वछन्दता थी जिसने मेरे एहसास को निर्बाध फलने-फूलने का पूरा अवसर दिया ।भाईसाहब अंग्रेजी साहित्य से एम.ए थे और उनपर अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों का अच्छा-खासा प्रभाव था ।उनदिनों जिन्दगी की फिल्म में मेरा किरदार भी कुछ-कुछ अमोल पालेकर जैसा ही था और भाईसाहब कुछ-कुछ उत्पल दत्त की तरह टिपिकल अंदाज में .. कभी-कभी स्वयं रोल प्ले करते हुए और कभी-कभी (बतौर डायरेक्टर) कहानी को एक खूबसूरत मोड़ देते हुए ..और दीदी ? ..कुछ-कुछ सुत्रधार की भूमिका में ..लगभग हर छोटी-बड़ी खट्टी-मिठी घटना में भी एक रजनीगंधा की संभावना को सुंघती-तलाशती हुईं। ..इतने उन्मुक्त और खुले माहौल में कब दो साल बीत गये- इसका भान तक नहीं हुआ .. कि इसी बीच अचानक भाईसाहब का वहाँ से तबादला हो गया ..और इसतरह कुछ बदले-बदले से अंदाज में एक बदली हुई शख्सियत के साथ बहुत सारी यादों को समेटे उस शहर से मुझे रूख्सत होना पड़ा ... ... जिन्दगी की यह एक ट्रेजडी सी रही कि मैंने जो भी चाहा उसे पाने में हमेशा ही नाकाम रहा । अंदर की विल-पावर ही शायद इतनी कमजोर सी थी कि मैं अपने मन के भावों को सिर्फ और सिर्फ डायरी के पन्नों पर लिखने तक ही महदूद रहा ..दरअसल इंट्रोवर्ट किस्म के लोगों के साथ यही होता आया है.. बहुत से असफल प्रेमियों को मैंने इस जिन्दगी में शायर बनते देखा और बाद में चलकर एक सिरफिरा आशिक .. देवदास की तरह.. एक आत्म-हन्ता रोल-माॅडल । .. सीवान में मेरे बचपन का एक दोस्त था--स्वामीनाथ .. बहुत ही गरीब चित्रकार जो अपनी प्रतिभा की बदौलत शांति-निकेतन में दाखिल होकर फाइन-आर्ट्स सीखते-पढ़ते .. अंततः ढाई आखर में ही फँसकर रह गया-वहाँ पर किसी बेवफा माशूक के एकतरफा प्रेम में ..। वहाँ की पढाई अधुरी छोड़-छाड़कर अचानक एकदिन सीवान की गलियों में घुमते देखा गया ..फिर बाद में उसका वही हस्र हुआ जो शम्आ के इर्द-गिर्द मंडराते परवानों का होता आया है .. एक रात स्टेशन की बेंच पर एक लावारिश लाश दर्ज हुई जिसकी शिनाख्त बाद में स्वामीनाथ के नाम से हुई ..मगर देवदास कभी न खत्म होने वाला एक सिलसिला है.. देवदास हर युग में पैदा होते आये हैं -अपनी पूरी गरिमामय दीवानगी के साथ।.. एक दिन स्वामीनाथ से रास्ते में भेंट हुई ..बिल्कुल फटेहाल स्थिति में ..पैबंद लगा कुर्ता-पजामा ,बढ़ी हुई बेतरतीब दाढ़ी और कंधे पर लटका कपड़े का झोला ..उसने चाय पीने की इच्छा जाहिर की । उसके आग्रह को मैं कभी टाल नहीं पाया ।जब भी मिलता तो अपनी प्रेमिका की तारीफ में ही मशगुल रहता । चाय पीते हुए उसने एक आह भरी और चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कान विखेरते हुए कहा-'यार,मुकुल !इस जन्म में अगर न मिली तो अगले जनम तक भी इंतजार रहेगा.. ।' कुछ भी समझाने का उसपर कोई असर नहीं होता।वह हर दिन उसके कभी न आने वाले खत की प्रतीक्षा करता और पोस्टऑफिस के चक्कर लगाता..बाद में स्टेशन जाकर बंगाल से आनेवाली गाड़ियों में भी उसे खोजते रहता ..शायद उसरात भी...

( क्रमशः )