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मिस्टर गुलाटी और जायसवाल
व्‍हाट्सअप पर मैसेज की आवाज़ आयी है। देखता हूं – गुलाटी साहब का मैसेज है। दिन में उनके कई मैसेज आते रहते हैं। ज्‍यादातर फारवर्डेड। अरे, ये तो उनका ग्रुप मैसेज है - साहब जी, अगर आप घर पर हैं या आस-पास हैं तो तुरंत मेरे घर पहुंचें लेकिन हर हालत में 11:00 बजे से पहले। फोन न करें। सी 303 अटलांटा।
हैरानी हो रही है – अचानक बुलाया है और फोन करने से भी मना किया है। घड़ी देखता हूं – नौ बजे हैं। मेहता मेरी ही बिल्‍डिंग में रहते हैं। उनसे पूछता हूं। वे भी परेशान हो रहे हैं। अचानक क्या हो गया है? फोन करने से भी मना कर रहे हैं।
हम दोनों यही तय करते हैं कि ग्रुप के बाकी सदस्यों को भी इतला कर देते हैं कि हम सब साढ़े नौ बजे गुलाटी की बिल्डिंग के नीचे इकट्ठे हों और फिर एक साथ उनके घर पर जाएं।
पत्‍नी को बताता हूं – अचानक गुलाटी ने सबको बुलवाया है, पता नहीं क्‍या हो गया हो। उन्होंने ठंडी सांस भरी है – रब्ब खैर करे।
गुलाटी जी के घर पहुंचते-पहुंचते हम 7 लोग जमा हो गए हैं। सातों के चेहरे पर अनिश्चितता और आशंका है कि पता नहीं क्या हुआ होगा। लिफ्ट से बाहर निकलते ही सामने गुलाटी का डबल फ्लैट है। दरवाजा खुला हुआ है, गुप्ता जी बाहर ही खड़े हैं और सामने ही ड्राइंग में फर्श पर सफेद कपड़े से ढकी एक डैड बॉडी रखी हुई है। चेहरा ढका हुआ है। हम सकते में आ गए हैं। मिसेज गुलाटी तो आजकल बेटों के पास कनाडा गई हुई हैं और गुलाटी तो अकेले रहते हैं इन दिनों, तो फिर यह कौन?
गुलाटी हमें एक साथ आया देख कर दरवाजे पर आ गये हैं। गुप्ता जी ने फुसफुसाकर बताया है - प्रोफेसर जायसवाल। कल रात नींद में गुजर गये।
- अरे, जायसवाल, इस तरह अचानक? हमने हैरान होते हुए गुलाटी से पूछा है - और फिर आपके घर पर कैसे?
- ये सारे सवाल आप बाद में पूछना। पहले आप लोग जितने ग्रुप मेम्‍बर्स को इकट्ठा कर सकते हो, करो। किसी को फोन पर बताने की जरूरत नहीं है। बस, यहां आने के लिए कहें। गुलाटी मेहता की तरफ मुड़़े हैं – और मेहता जी, आप गुप्ता जी के साथ दरवाजे के पास रहें और हर आने वाले को अटैंड करें। ज्‍यादा बताने के लिए कुछ है नहीं और ज़रूरत भी नहीं है।
हम प्रोफेसर जायसवाल की डेड बॉडी के पास आए हैं। चेहरे से चादर हटाकर देखते हैं। चेहरा वैसे ही उदास है जैसे हर रोज़ हुआ करता था। वैसा ही भावहीन। मुक्‍ति पा जाने का अहसास जरूर आ जुड़ा है चेहरे पर। परम शांत मुद्रा। मैं और नहीं देख पाता। हमने चेहरा ढका है और कुर्सियों पर आ बैठे हैं। उफ, ये मौत भी न।
अब तक बीस के करीब लोग ड्राइंग रूम में जमा हो गये हैं। हम सबको नहीं जानते। हो सकता है, प्रोफेसर जायसवाल के परिचित या रिश्‍तेदार हों या इसी बिल्‍डिंग के रहते हों।
गुलाटी मेरे पास आ कर बैठ गये हैं। वे मेरी आंखों में सवाल पढ़ लेते हैं। खुद बताते हैं – मैं सुबह जब उन्हें सैर पर जाने के लिए उठाने गया तो हिले ही नहीं। रोजाना मुझसे पहले उठ कर तैयार हो जाते थे। उनका चेहरा देखते ही समझ गया कि ये अनंत यात्रा पर निकल चुके हैं। सामने ही डॉक्‍टर चोपड़ा रहते हैं। उन्हें फटाफट बुलाया। वे आये। दो मिनट में ही बता दिया कि रात में साइलेंट अटैक आया है। नींद में चल बसे। आदमी को खुद पता नहीं चलता ऐसे अटैक का। चुपचाप निकल लिया हमारा यार।
- डेथ सर्टिफिकेट?
- डॉक्‍टर चोपड़ा एमडी हैं। उन्‍होंने ही दिया है।
- अंतिम संस्कार कैसे करना है? मतलब इनके घरवालों को खबर करनी होगी। यहां कोई है या किसी का इंतजार करना होगा?
गुलाटी बताते हैं – बेटा था, मर चुका है, यहां बहू के पास सफायर टावर में रहते थे, वह भी आजकल मायके गयी हुई है। इनके पेपर्स में उसका मोबाइल नंबर कहीं मिला नहीं। इनके पास मोबाइल था नहीं। कुछ दिन से मेरे पास ही रह रहे थे। सवेरे गुप्ता जी चेक करने गये थे शायद बहू आ गयी हो। घर पर ताला बंद है। ग्वालियर में इनके कुछ लोग होंगे, अब किसे खबर करें।
ये हमारे लिए खबर थी। पूछता हूं मैं - और संस्कार?
- गुप्ता जी ने सारी तैयारी करा दी है। हम ही करेंगे। हमसे सगा उनका और कौन था।
- वहां खबर कर दी है?
- हां, इलेक्ट्रिकल संस्कार होगा। भतीजे को भेजकर खबर करा दी है। पंडित जी आते ही होंगे।
देखते देखते हमारा पूरा ग्रुप आ चुका है। बिल्‍डिंग के भी कुछ लोग चेहरा दिखा गये हैं।
शव वाहिनी के आने तक पंडित जी सबकी मदद से शव को स्‍नान आदि करा चुके हैं। कुछ लोग शव वाहिनी में और कुछ कारों में श्मशान घाट की ओर चल दिये हैं। जो लोग ज्‍यादा देर तक खड़़े नहीं रह सकते या बैठ नहीं सकते या श्मशान भूमि तक नहीं जाना चाहते, उन्‍होंने गेट से ही शव को हाथ जोड़ कर माफी मांग ली है और अपने घरों को लौट गये हैं।
अचानक सब बहुत उदास हो गए हैं। कोई इस तरह से जाता है क्या? चुपचाप। बिना बताये। हवा भी नहीं लगने दी किसी को।
अंतिम संस्कार से लौटते-लौटते एक बज गया है। गुलाटी ने श्मशान घाट में ही सबको बता दिया है कि शाम को शांति कुटीर में आयें। कुछ बातें शेयर करनी हैं। वैसे भी सबके पास बहुत सारे सवाल हैं जिनके जवाब गुलाटी ही दे सकते हैं। मैं और मेहता गुलाटी को अपने साथ ले आये हैं। हम जानते हैं इस मौके पर अपने इतने बड़े घर में उनका अकेले रहना ठीक नहीं होगा। बाकी दिनों की बात अलग है। उनके घर के नीचे गाड़ी रुकवा कर हमने इतना जरूर कर दिया है कि वे अपने लिए एक जोड़ी कपड़े लेते आयें।
मेरे घर पहुंचते ही गुलाटी अचानक मेरे गले लग कर फूट फूट कर रोने लगे हैं - जायसवाल को उनके घर वालों ने मार डाला और हम कुछ भी नहीं कर सके। कुछ भी नहीं कर सके। मार डाला उन्‍होंने अपने पिता को। वे रोये जो रहे हैं। सुबह से उन्‍होंने अपनी रुलाई रोकी हुई थी। मैंने उन्‍हें रोने दिया है। मेरी आंखें भी गीली हैं लेकिन मैं किसी तरह से अपनी रुलाई रोके हुए हूं।
स्‍नान करने और खाना खा लेने के बाद हमने गुलाटी को एक तरह से जबरदस्‍़ती सुला दिया है।
शाम को जब मैं गुलाटी के लिए चाय ले कर गया हूं तो वे जाग चुके हैं और एक डायरी के पन्‍ने पलट रहे हैं।
खुद ही बताते हैं – प्रोफेसर जायसवाल की डायरी है। वे कभी कभार लिखते थे। सुबह मेज पर ये डायरी रखी मिली। उनके घर वालों के नंबर वगैरह देखने के लिए पन्ने पलटे। कोई नंबर तो नहीं मिले लेकिन उस आदमी की उदास रूह के दर्शन ज़रूर हो गये।
दोपहर को जब घर पर कपड़े लेने गया था तो साथ लेता आया। वाहे गुरू, कितनी बेचारगी की ज़िंदगी जी रहा था ये आदमी। अपने गलत फैसलों का शिकार हो गया और बेमौत मारा गया।
मैं सुन रहा हूं। जायसपाल के बारे में हम कितना कम जानते थे। बस यही कि वे चार पांच महीने से हर शाम शांति कुटीर में हमारे साथ बैठने लगे थे। हमेशा गुमसुम और उदास रहने वाले जायसवाल ने शायद पिछले पांच महीनों में पचास वाक्‍य भी नहीं बोले होंगे। यही इस शहर की कमीनगी है। हमें बरसों तक अपने पड़ोसियों के नाम तक पता नहीं चल...