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नियति
यदि गंगा जानतीं उनकी नियति में अंत में उन्हें खारे पानी में मिल जाना है तो क्या वह इस भूलोक पर अवतरित होतीं। अपने धर्म ग्रंथों की मानें तो वे श्री हरि विष्णु के अंगूठे से निकलकर, बह्मा के कमंडल में समाईं , फिर शिव की जटाओं में जा विराजीं ( इस तरह तो उन्हें कैलाश से निकलना चाहिए था)।
भागीरथ की उंगली थामे गंगोत्री की मासूम सी धारा कब यौवन की आतुरता के आवेग में हर पत्थर, पहाड़ को काटती , बेफिक्र, बेपरवाह सी लोक-लाज, लोकनिंदा तज, उच्छृंखल हो रास्ते की हर धारा को अपने में समाहित करतीं बस बहे जातीं हैं ।
और विचल, विकल , अविरल इस धारा में बहते- बहते जाने कहां से इतना स्थायित्व ,शालीनता और गरिमा आ जाती है कि जिस तट और नगर को छू कर गुजरीं वह तीर्थ बन गया, जहां दूसरी धारा से आलिंगन कर लिया वहां संगम मेला लग गया , पाप को छुआ तो पुण्य हो गया। लाखों योनियों में भटकते हम मनुष्यों की वे मोक्षदायिनी , मां बन गईं।
कहते हैं हमारे जन्म से ही हमारी नियति तय हो जाती है (ऐसे में कर्म-प्रधानता का क्या तुक रह जाता है) । शिव की जटाओं से उतरते हुए उन्हें पता होता कि आखिर में उन्हें सागर में समा जाना है तो क्या वे धरती पर आतीं ?
उन्हें आना ही था। उन्होंने लोकसेवा का व्रत जो लिया था। निरंतर, निरंकुश, उच्छृंखल धारा का एक स्थितप्रज्ञ ,गंभीर ,खारे पानी में मिल जाने की नियति भी तो उन्हें खींच लाई होगी।
और यह उस पवित्र, गरिमामयी के नाम की महत्ता है (गंगा में डुबकी न लगा सकें तो नल के पानी से नहाते हुए "हर- हर गंगे" बोलने से ही पाप धुल जाते हैं) या कर्म की (इतने बड़े भूभाग की भूख प्यास मिटाती हैं) कि गंगा जब सागर में मिलती हैं तो 'सागर 'नहीं होतीं बल्कि सागर "गंगासागर" हो जाता है।।




© khak_@mbalvi