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बाबू जी
शुक्रवार
1 जुलाई 2022
10:30
प्रिय,
दैनंदनी
हाथ में गरम चाय की प्याली के साथ ही, सालो पुराण वो किस्सा मेरी जिंदगी का, सावन में पहली बरसात की तरह यू उभर आया, बात थी तब की जब हमारी उमर 7 य 8 से ज्यादा की नहीं होगी। यादें धुंधली है लेकिन इतनी भी कमज़ोर नहीं की वो किस्सा भूल जाये! बाकी दिनो की तरह भी उस दिन की शुरुआत भी मेरी दूध की गरम गिलास से हुई थी। माँ कैसे भी करके ज़बरदस्ती हमे पिलवा देति और जिस दिन हमारी न नुकुर होती, तो फिर दूध के गुण गिनाने लगती।बाल बांधवा कर ,जब पूजा घर से घंटी की आवाज़ आने लगी।तो जल्दी से हम भागने लगे आगन से पूजा घर की ओर
तब हमारे पायल की वो गुंज पुरे घर मे गुंजती। और बाबा को पता चल जाता की हम दौड़े आ रहे हैं। पायल कि इतनी गुंज होती की पुरे घर मे फैल जाति। की बाबा अक्सर कहा करते "बिटिया है तो, घर क आंगन है",
मां के पहले पूजा करने के बाद बाबा का पूजा होता । और समाप्त होते ही, हम खड़े हो जाते पूजा घर के सामने, बाबा हमे देखकर मुस्कुराते और हम हसने लगते। प्रसाद लेने के बाद , हमारा हाथ पकड़कर बाबा बाहर आते । एक हाथ में बाबू जी का हाथ रहता , तो दूसरे में मां के बनाए हुए प्रसाद के लड्डू । हमारे आते ही मां बाबू जी को खाना परोसती और हमे पीढ़े पर बैठा कर खाना खिलाती।

7 बजते ही मां हमारे लीलार पर कुमकुम लगती, चंदन के टीके के ऊपर जो हमे बाबू जी ने लगाया था। बाबू जी कहते "अरे, हमारी बिटिया आज कितनी सुंदर लग रही है", और हम शर्मा के मुस्कुराने लगते। मां अपने हाथ से सिया हुआ वस्ता लाकर देती। जिसमे हमारी किताबे,कलम और नास्ता रहता। बाबू जी हमारे हाथ में 25 पैसे रखते और मुट्ठी बंद कर देते । हम दौड़ते दौड़ते विद्यालय पहुंचते। जैसे ही हमारा पहुंचना विद्यालय में हुआ , वैसे ही पूरे विद्यालय में तबाही मची हुई थी। बाद में पता चला कि ये सब फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता के लिए है। जो विद्यालय में कल होने वाला है। उस वक्त हमारे नन्हे नन्हे कानो ने ये बात पहली बार सुनी थी। मास्टर जी से और पूछने पर पता चला कि आखिर ये हैं क्या । फिर क्या था , जैसे ही विद्यालय की घंटी बजी। पहुंच गए हम बाबू जी के पास और हमे पता था , बाबू जी सब मना कर सकते है पर हमारे नन्हे प्यारे आंखों को नही । हमे ज्यादा ज़िद नही पड़ी थी। और बाबू जी बाज़ार ले चल के हमारे पसंद के कपड़े प्रतियोगिता के लिए दिए । हमारे खुशी का ठिकाना नहीं था तब। और हमे खुश देखकर बाबू जी भी मुस्कुरा दिए। अगले ही दिन जब हमारा प्रतियोगिता शुरू होने वाला था। तब मां और बाबू जी दोनो पहुंच गए। मां ने बताया था, की बाबा को काम है वो नही आ पायेंगे, तो हम बहुत निराश हुए थे। पर आज दोनो को देखकर हमारा मनोबल और भी बढ़ गया।
कभी हमने मंच को करीब से देखा भी नहीं था, और उसपे चढ़ना, वो भी इतने सारे लोगो से सामने। मानो नामुमकिन सा लग रहा था। जैसे हमारे पैर थरथरा रहे हो। और हम कही दूर भाग जाए। बाबू जी ने बताया कि तुम किसी से आंखों में मत देखना सिर्फ उनके सर को देखना , लंबी सांस लो और जाओ।
प्रतियोगिता खत्म हो गया और बाबू जी के दिए गए सुझाव काम आई। बाबू जी और मां के मुस्कुराते चेहरों ने हमारा मंच पर मनोबल और भी बढ़ा दिया था। शाम हो गई थी, और हम तीन जन घर को रवाना हो रहे थे। रास्ते मे बाबू जी ने हमे एक मलाई की कुल्फी दिलाई। और ठेले पर हरी _ लाल चूड़ियां बिक रही थी। तो मां ने कहा बाबा को दिलाने को। अब महतारी के आगे तो त्रिदेव की नही चलती, तो बाबा क्या ही है। हरी चूड़ियां और बिंदी लेकर हम सब घर पहुंच गए।
रात के वक्त मां ने बाबू जी को खाना परोसने के बाद हमे सब्जी चावल खिला रही थी।
खाने के बाद बाबू जी उठ कर कमरे में चले गए। और वैसे ही दरवाजे पर खट खट की आवाज आई। हमारा भी खाना हो गया था। तो मां उठकर हाथ धोने के बाद दरवाजा खोलने गई।
इससे पहले मां दरवाजा खोलती तभी एक आवाज आई।
"ओ, चांद बिटिया, दरवाजा खोलत हो", इतने में मां ने सर पे आंचल रखकर दरवाजा खोल दिया। हम खड़े होकर बोले,
"डॉक्टर साब, हमारा नाम चांद नहीं चंदा है", हमने कमर पर हाथ रखकर झूठा गुस्सा होकर कहा। डॉक्टर साब हंसने लगे।
जब हमारा जन्म हुआ था तब अंधेरी काली रात थी , और हमारे होते ही आसमान में चांद निकल आया था। और बाबा के जीवन में चांद सी रौशनी आ गई थी। जो बाबा कहते है।
तभी से हमारा नाम बाबा ने चंद्रिका रख दिया। गांव से सारे लोग हमे चंदा कहकर बुलाते है, है डॉक्टर साहब के अलावा।
डॉक्टर साहब हर महीने बाबा के इलाज के लिए आते है। बाबा का बि पी कुछ ज्यादा ही लो रहता है। इसीलिए दवाई और इंजेक्शन लेकर आते है। हम अपने गुडे गुड़ियों के साथ खेल रहे थे। और मां रसोई में चाय बना रही थी।
लेकिन डॉक्टर साहब के चाय पीने के बाद बाबा ने जाने को कहा।
ये कहकर की अभी पैसे नही है।

आज के लिए इतना ही प्रिय दैनांदनी, कल फिर मिलते एक नए किस्से के साथ।
तुम्हारी चंद्रिका।


© kirti Deep