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कहानी प्रवासी मजदूर की
अपना नारंगी रंग से केसरिया रंग बदलते बदलते सूरज धीरे- धीरे ढल रहा था। ठंडी हवाओं ने दिन की गर्मी को हरा दिया था।
परिंदे बेफ़िक्री से चहकते हुए, आसमान में उड़ रहे थे, लेकिन शहर के शोर शराबे में यह चहकाट कहीं छुप सी गई थी।

"बस कैसे ही, यह तीन दिन कट जाए, इसके बाद लंबी ट्रेन की यात्रा, मां के हाथ का बना लिटी चोका, वो बहन के साथ रिमोट के लिए लड़ाई, वो अपने भाइयों के साथ गली क्रिकेट"
संजय का दिमाग इन्हीं ख्यालों में घूम रहा था।

जब हम किसी चीज़ का बेसब्री से इंतजार करते है तो वक़्त थम सा जाता है,
कछुए से भी धीमा हो जाता है,
घड़ी की सूइयां, इतनी धीमी लगने लगती है मानो दुनिया का सारा आलस इसी में समा गया हो।
संजय काउंटर पर खड़ा खड़ा अलग ही दुनिया में खो गया था।

टीवी की तेज आवाज़ ने संजय को हकीक़त से रुबरू कराया।
संजय ने एक गहरी सांस ली और आस पास देखा तो सेठजी दुकान में लौट आए थे और टीवी देख रहे थे।

संजय चहेरे पर मास्क पहने, ग्राहकों को डिज़ाइनर लहंगे दिखाने में लग गया | लेकिन आज उसका मन भटका भटका लग रहा था |
जब ग्राहक लाल चुनरी मांगते तो, महरून थमा देता तो कभी नीली के बजाय पीली|
एक मोहतरमा ने तो कह ही डाला
"भैया,पहली बार दुकान आये हो क्या"

संजय ने सेठजी की तरफ नज़र डाली और नज़र छिपाते हुए उस मोहतरमा से माफ़ी मांगी और अपने गावं वाले ख्यालों को एक तरफ रखकर, अपने काम में ध्यान लगाया।

बाकि दिनों की तुलना में, ग्राहकों में काफी कमी आ गयी थी। दुनिया भर में कोरोना महामारी का खौफ छाया हुआ था। अब यह भारत में भी दस्तक दे चूका था। संजय ने मास्क को ठीक करते हुए अपनी नज़रे टीवी पर चल रहे न्यूज़ चैनल पर लगायी। हालांकि, रिपोर्टर की अंग्रेजी उसको समझ नहीं आयी थी लेकिन कुछ तस्वीरों ने उसके लम्बे समय का इंतजार और सपने को मिटटी में मिला दिया था।

आज रात से, २१ दिन के लिए सारी रेलगाड़िया बंद, बसे बंद. दुकाने बंद। यह लॉकडाउन की घोषणा, उसके सब्र के फल को चकनाचूर कर चुकी थी ।

संजय के चेहरे पर मायूसी छा गयी थी । संजय को गावं गए करीब दो साल हो गए थे। बड़ी मुश्किल से उसको छुट्टिया मिली थी।

जैसे तैसे करके बाकी वक़्त गुजारा और रात होते ही सीधा अपने घर चला गया। सेठजी ने इस महीने की पगार तो दे थी, अलगे महीने का काम और पगार अब एक राज़ बन गया था|

जहाँ उससे ३ दिन का इंतजार नहीं हो रहा था अब तो इंतजार २३ दिन का हो गया। संजय ने पिछले २ सालो में एक भी छुट्टी नहीं ली थी| वो अपने बचपन के दोस्त अब्दुल के साथ किराये पर एक छोटे से कमरे में रहता था| संजय को सूरत आये ६ साल हो गए थे| दोनों एक ही सेठ की अलग अलग दुकानो में सेल्समेन के रूप में काम करते थे|

अलग अलग मजहब होने के बाउजूद भी दोनों एक ही छत के नीचे रहते, नहीं कभी लड़ाई, नहीं कोई नोकझोक| सालों साल उनकी उम्र के साथ उनकी दोस्ती भी बढ़ रही थी |
१६ साल का था संजय जब वो पहली बार सूरत आया था| पिता की गरीबी और बड़े परिवार को समभालने में अपने पिता की कठिनाइया उससे देखी नहीं गयी और अपने दोस्त अब्दुल के साथ सूरत की ट्रैन पकड़ ली थी|

संजय घर के आँगन में बैठा, मन कही खो गया था ना उसने जूते उतारे, ना ही कपडे बदले, निर्जीव जैसे कोने में पड़ी अटेची को बिना पलकें झपकाए एक टक देख रहा था |
माँ के लिए महरून साड़ी, बहनों के लिए चाँदी के कंगन और भाई के लिए इंग्लिश डिक्सनरी के बारे में सोच रहा था|
"माँ तो खुशी से फुले ही समाएगी, पता है बोलेगी की मेरे पास पहले से ही बहुत साड़िया है इसकी क्या जरुरत थी"
इन खयालो में वो आँगन में लेट गया और आँखे मूँद ली|

दरवाजा बजने की आवाज ने संजय को होश में लाया| दरवाजे पर अब्दुल था, उसके चेहरे पर भी उदासी और मायूसी साफ़ झलक रही थी| |

लेकिन उसने अपने चेहरे पर नकली मुस्कान चढ़ाने की नाकाम कोशिश की और संजय के पास खड़ा हो गया| संजय चुपचाप अब्दुल की नकली मुस्कान के पीछे छिप्पी उदासी भांप गया था|
"अरे २१ दिन को ही तो बात है भाई, देखना युहु गुज़र जायेंगे" अब्दुल ने कहा|
"हाँ" संजय ने भी अपने चेहरे पर नकली मुस्कान की चादर चढ़ाये हुए, अपना सर हिलाते हुए जवाब दिया
उसके बाद दोनों ने एक दूसरे को तसली दी और खाना बनाने में लग गए|

दिन बड़े मुश्किल से गुज़र रहे थे क्योंकि उन दोनों को युहु पुरे दिन घर पर रहने की आदत जो नहीं थी| वीकेंड में भी कोई छुट्टी नहीं मिलती थी, पुरे महीने में एक ही दिन छुट्टी मिलती थी वो भी अमावस के दिन जो वह शहर में घूमके गुज़ार देते थे|

जैसे तैसे करके २० दिन गुज़ारे वो दोनों इस लॉकडाउन के पुरे होने का इंतजार कर रहे थे| लेकिन जब लॉकडाउन पुरे होंने के बजाय बढ़ गया था, एक बार फिर से उनकी वही हालत हो गयी थी जो लॉक डाउन के पहले दिन हुए थी| धीरे-धीरे पैसे भी खत्म हो रहे थे, कमरे का किराया, राशन का खर्च, बिजली का बिल और आय कुछ भी नहीं थी|

कुछ दिनों बाद, जब उन्होंने 'श्रमिक ट्रैन' के बारे में सुना तो उनको आशा की एक नयी किरण दिखाई दी| पुलिस स्टेशन के कई चक्कर लगाए, वेबसाइटस पर कई फॉर्म भरे, लेकिन कुछ नहीं हो पाया और धीरे धीरे यह आशा की किरण धुंधली हो गयी|

बड़ी मुश्किल से कुछ दिन और निकले, लेकिन अब बचत भी खर्च हो चुकी थी| यह शहर फिर से अनजान हो गया था, अब किससे मदद मांगे, यह ख्याल उनकी कई रातों की नींद छीन रहा था|

एक शाम जब संजय ने सोशल मीडिया पर पैदल चल रहे प्रवाशी मजदूरो की तस्वीरों देखी तो उसी समय बिना कुछ सोचे समझे पैदल ही गावं जाने की सोची और उसी रात को उन्होंने अपनी यात्रा शुरू भी कर दी|

आधी रात हो गयी थी। २४ घंटे व्यस्त रहने वाली हाईवे आज ख़ामोशी के शोर में चुप थी। कई किलोमीटर चलने के बाद जब उनको थकान महसूस हुयी तो दोनों की आँखे किसी मदद की तलाश कर रही थी। कुछ ट्रक्स दिखे तो,उनके मायुश पड़े चेहरे पे मुस्कान आयी। कई ट्रको के आगे हाथ हिलाते इशारा किया , किसी ने ट्रक नहीं रोकी। कुछ घंटे बाद एक ट्रक ड्राइवर ने ट्रक रोकी और दोनों ड्राइवर के पास ही बैठ गए थे।

सफर लम्बा था , संजोग से यह ट्रक बिहार ही जा रही थी। संजय फिर से अपनी ख़याली दुनिया में खो गया और कब उसकी आँख लग गयी उसको पता ही नहीं चला । रात के करीब ४ बजे जब संजय की आँखे खुली तो उसने अब्दुल को उसकी गोद में सोया हुआ पाया, उसका बदन पसीने से लथपथ था, उसका शरीर पूरा गर्म हो गया था। संजय ने जब उसके सर पर हाथ लगाकर देखा तो पाया की उसको को बहुत तेज़ बुखार है। उसने आस पास खिड़की के बाहर देखा तो अभी भी अँधेरा था , कोई शहर या गावं नज़र नहीं आया।

जब संजय ने ड्राइवर से हॉस्पिटल कई बारे में पूछा तो , ड्राइवर गबरा गया था। उसने नज़रे अब्दुल पर दौडाई और ट्रक को साइड में रोक दिया और अपना मास्क को सही करने लगा और हाथो को सनिताएज किया। अब तब अब्दुल उठ चूका था।

ट्रक ड्राइवर अब अब्दुल को यह हालत भांप चूका था शायद उसको लगा की अब्दुल कोविड पॉजिटिव भी हो सकता है | उसने तुरंत अब्दुल को नीचे उतरने के लिए कह दिया|
बिना कुछ बोले, अब्दुल नीचे उतर गया | संजय को बहुत अजीब लग रहा था | वो भी जब नीचे उतर ही रहा था की ड्राइवर ने उसको रोकते हुए कहा
"तुम काहे उतर रहे हो" ड्राइवर ने कहा
"धन्यवाद्" संजय ने कहा और नीचे उतर गया|

अब्दुल के पैर कांप रहे थे , वो चल ही नहीं पा रहा था| संजय ने उसके कंधे पर हाथ रखा, दोनों सड़क के किनारे , चाय की बंद पड़ी छोटी सी दुकान पर बैठ गए|
बिना कुछ बात किये अब्दुल, वही एक लकड़ी की बेंच पर ही सो गया था
संजय पूरी तरह डर गया, क्या करना है उसको समझ नहीं आ रहा था| उसने कई अस्पतालों के नंबर मिलाये, लेकिन कोई मदद नहीं मिली| इसी सोंच में वो भी लेट गया, लेकिन नींद अब भी आँखों से कोसो दूर थी, वो वही चिंता में रात भर करवटे बदलता रहा|

जब सुबह हुए, फिर से अम्बुलैंसेस के नंबर मिलाने में लगा गया| कुछ घंटो बाद एम्बुलेंस आयी , तब जाके उसने राहत की साँस ली लेकिन अब भी उसको अब्दुल की चिंता सताए जा रहा थी|
वहां से सबसे नजनिकी अस्पताल करीब १ घंटे का रास्ता था, लेकिन संजय के लिए एक एक क्षण, घंटो जैसे प्रतीत हो रहा था| अब्दुल की अभी वही हालत थी|

अस्पताल के रिसेप्शन पर संजय से कई फार्म भरवाए, करीब १ घंटे बाद अब्दुल को भर्ती किया गया और संजय का सैंपल कलेक्ट करके उसको को पास के ही 'आइसोलेशन सेंटर' में भेज दिया|

संजय बस अपने दोस्त के लिए दुआ कर रहा था, कभी भगवान से, तो कभी अल्लाह से| इसी बीच वो बार बार अपना फ़ोन चेक करता था की कब डॉक्टर का कॉल आये और कहे, "अब्दुल अब ठीक है, आप उसको ले के जा सकते है" |

इसी दुआओ और इस इंतजार में शाम हो गयी थी| संजय के फ़ोन में कॉल आया जिसका वो बेसब्री से इंतजार कर रहा था| लेकिन डॉक्टर ने वो सब नहीं कहा जैसा उसने सोंच था|
"सॉरी, हम अब्दुल को नहीं बचा पाए" डॉक्टर ने धीमी आवाज में कहा|
संजय ने तुरंत फ़ोन काट दिया|

उसके पैरो तले जमीन खिसक रही थी| क्षण भर में आंखे लाल हो गयी और उसकी आँखों से अश्को की बौछार होने लगी थी| ज़िंदगी उसको इस मोड़ पर लाएगी, उसने कभी सोचा भी नहीं था|

अब्दुल उसका दोस्त मात्र नहीं था, बल्कि टीचर भी था जिसने संजय को गुजराती के कुछ शब्दों से लेकर जीवन के भी कई पाठ पढ़ाये थे| अब्दुल संजय के लिए सूरत जैसे अनजान शहर में भाई से कमतर नहीं था।

दुखो की बौछार, अभी खत्म नहीं हुए थी, अभी संजय की 'कोविड टेस्ट रिपोर्ट' आनी बाकि थी| लेकिन संजय को इस रिपोर्ट की चिंता नहीं थी , वो तो बस अब अब्दुल के बूढ़े बाबा के बारे में सोंच रहा था, उनका बुढ़ापे का सहारा अब इस दुनिया में नहीं रहा था|
"क्या कहूंगा अब्दुल के बाबा से,
कौन गुनहगार है अब्दुल की जाने का ,
श्रमिक ट्रैन को दोष दू, या फिर
उस ड्राइवर को या फिर ,
उस महामारी को या फिर,
उस लॉक डाउन को,
दोष चाहे किसी को दू , कोई भी मेरे मित्र को नहीं लौटा सकते"
रात भर संजय के दिमाग में यह ख्याल घूम रहे थे, ना उसका मन सोने में लगा और ना ही खाने में|

पूरी रात उसकी करवटे बदलते बदलते गुजरी| सुबह उसकी कोविड-19 की रिपोर्ट ''नेगेटिव" आयी| इस रिपोर्ट का संजय को कोई फर्क नहीं पड़ा था| वो एम्बुलेंस में , बेजान अब्दुल के साथ अपने गावं गया|
सभी इस दुखदाई घटना से शौक में थे| अब्दुल के बाबा का बुरा हाल था, कैसे संभालता उनका वो खुद भी नहीं सम्भला था अभी|
ना उसका मन गली क्रिकेट में लगा , ना टीवी देखने में |
कुछ दिन मुश्किल से गुज़रे थे| हर रात को अब्दुल के बाबा का ख्याल उसके जहन में आ रहा थे| कई रातों की नींद उसकी आँखों का रास्ता भूल सी गयी थी|
अब्दुल के परिवार में उसके बाबा और उसका छोटा भाई ही था| छोटा भाई अच्छी स्कूल में जा सके , इसीलिए तो वो कम उम्र में ही काम करने सूरत चला गया था|
"उसके बाबा और उसके भाई का मै ही ख्याल रखूँगा ,अब मेरे दो भाई है और दो घर भी" वो अपने आप में बड़बड़ाया|

संजय अब गावं में ही खेती करता है ,कभी अपने घर रहता है तो कभी अब्दुल चाचा के घर| आये दिन लोगो को कहता रहता है मेरे दो दो घर है| और अब से दो भाई भी| अब अब्दुल के छोटे भाई का भी वही ख्याल रख रहा है |

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