...

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लड़कियाँ....
कल एक रील देखी, शुरुआत थी..... हम लड़के है जनाब.... अगर कामयाब नहीं हुए तो घरवाले भी नहीं समझते... घर से बेघर कर देते है...
तो बस रोक नहीं पाए, खुद को लिखने से....

हम लड़कियाँ है जनाब......
जिनका पैदा होने से मरने तक कोई घर ही नहीं होता l जहाँ पैदा होती है, वहाँ बोझ और किसी की अमानत समझ रखी जाती है l अपनी ख्वाहिशों को मार कर किसी और के लिए खुद को तैयार करती है l एक बंधुआ मजदूर जो हर कला में निपुण हो l
और एक दिन सजा बजा कर किसी अंजान के हाथ में सौंप दी जाती है l इस हिदायत के साथ कि अब उस घर से अर्थी पर ही बाहर आना l
जीवन भर उस घर में वो खुद को ढूंढती रहती है l हर जीवित और निर्जीव में खुद का अंश तलाशती है l पर अफसोस! वो कही नहीं होता l
हँसना, रोना, खेलना, गुनगुनाना, यहाँ तक कि उसकी शिक्षा का सम्मान भी औरों पर आश्रित हो जाता है l गले में गोल्ड मेडल लटका कर सर उठाने वाली, दो वक़्त की रोटी के लिए भी ताने सुनती है l सर झुका कर फिर भी आजीवन सब सहती है l क्यूँ ? कभी जन्मदाता के और कभी जीवनसाथी के सम्मान के लिए अपने सम्मान को हर रोज़ टुकड़ों में बिखरते देखती है l
कभी उस दहलीज़ की मर्यादा और कभी इस दहलीज़ की लक्ष्मण रेखा, उसके पांवों में बेड़ियाँ डालती रहती है l
परिवार, कहने को परिवार होता है, पर उसका कहाँ कोई होता है l आजीवन जिसे खुद भी खुद का होने का अधिकार नहीं होता, वो होती है लड़कियाँ l
बस एक चिर निंद्रा मे सोकर सुकूँ पाने की आस और विधाता के सन्मुख कुछ पृश्न करने की चाह लिए, जीवन यात्रा पर अपने लहू लूहान कदमों से निरंतर बढ़ती ही रहती है l
समय के साथ सोच मे बदलाव तो आया है किंतु वो नगन्य प्राय ही है l कटु सत्य है ये, निगलने और मानने में समाज के ठेकेदारों , समाज सुधारकों, उपदेशकों और समानता का झूठा दिखावा करने वाले वर्गों को कष्ट तो अवशय ही होगा ........


© * नैna *