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चाय की टपरी
वो भी एक जमाना था जब नुक्कड़ पर बैठा करते थ, इधर उधर की कहते थे, चाय की टपरी सबका एक ही ठिकाना था जो कहीं ढूंढे न मिलता वह भी वहाँ बैठा मिल जाता।
दफ्तर से आते जाते चाय की चुस्की जरूर होती थी सब अपनी अपनी धानते किसी की कोई न सुनता, कभी मिश्रा जी भड़क पड़ते बीजेपी पर तो कभी गुप्ता जी कांग्रेस की तारीफ करते नहीं थकते।
दिन भर के काम की थकान वही पर एक चाय की चुस्की के साथ और पास पड़ोस के
दोस्तों के साथ उतार ली जाती। पैसा नहीं होता था किसी के पास पर फिर भी खुशियाँ बहुत थी।
कभी कभी तो किसी छोटी सी बात पर बहस भी छिड़ जाती और हल्ला शोर भी होता, मोहल्ले की औरतें अपने अपने पति को घर ले जाती और थोड़ी ही देर में झगडा शांत भी हो जाता।
कभी चचा जान मुँह में पान चबाए आते
और कहते..... अरे ओ रामू!... मियाँ!जरा एक चाय पिलाएदो,
अब रामू बेचारे के पहले के ही पैसे चचा जान नहीं दिये तो कहाँ तक " फ्री का चंदन घिस मेरे नंदन" वाली चाय पिलाये।
लेकिन चचा ऐसे कहाँ मानने वाले आखिर टपरी की चाय तो पीनी ही थी, रामू ने गर्मागर्म एक बढ़िया अदरक वाली चाय पिलाई पैसे तो रामू के इसबार भी चचा नहीं दे पाए पर दुआएं हज़ार दी शायद इन्ही दुआओं से रामू की दुकान खूब अच्छी चल रही थी पर अब वो जमाने नहीं रहे।
पैसों की गर्मी और समय की कमी ने चाय की टपरी की जगह एक कैफे को दे दी और अब किसी के पास एक दूसरे का दुखड़ा कहने सुनने की फुर्सत भी नहीं रह गई उसकी जगह मोबाइल फोन ने ले ली।
कुछ अहम भाव ने भी जन्म ले लिया और दिलों में भी दूरियाँ बन गई, अब इंसान के पास दौलत शौहरत तो बहुत है पर शांति जीवन में फिर भी नही है, कभी भी किसी का कहा कोई भी दिल पर ले लेता है और शायद हार्ट अटैक को भी इसी मे जगह मिल जाती है अब वह नुक्कड़ भी बंद हो गया और चचा जान की उधारी भी।