...

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प्रेम अग्नि में जलती तृष्णा ।
काश ये मन निकल जाए
या मस्तिष्क द्रवित हो जाए ।
शरीर की हर एक कोशिका वितरित हो जाए ,
या विस्फुटित हो जाए ये आत्मा ।
चाहे जीवन की हर पहेली अधूरी छूट जाए ।
ये हर कहानी अनकही रह जाए ।
बस ये विरह का दर्द कम हो जाए ।
ये पीड़ा कैसे भी निकल जाए ।
जाने वाले चले गए ।
ह्रदय रोते रह गया ।
अब तो आंखे भी कहती है क्यू तड़पते हो हमे इतना
प्रेम करो तुम सजा पाए हम ।
क्यू हम हर दिन भिगो देते हो शरद ऋतु है ।
मिलन और वियोग दोनों के मौसम एक ।
वही महीना वही दिन वही मौसम ह्रदय अब भी इंतजार की अग्नि मै प्रीतिदिन आहुति डाले जा रहा की आज ,,आज ,,आज ।
किंतु घिरती घटा समय नष्ट नही करती ।
वो घिर ही जाती है।
वो सुरज के आने का रास्ता नही ताकती ।...