...

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प्रेम अग्नि में जलती तृष्णा ।
काश ये मन निकल जाए
या मस्तिष्क द्रवित हो जाए ।
शरीर की हर एक कोशिका वितरित हो जाए ,
या विस्फुटित हो जाए ये आत्मा ।
चाहे जीवन की हर पहेली अधूरी छूट जाए ।
ये हर कहानी अनकही रह जाए ।
बस ये विरह का दर्द कम हो जाए ।
ये पीड़ा कैसे भी निकल जाए ।
जाने वाले चले गए ।
ह्रदय रोते रह गया ।
अब तो आंखे भी कहती है क्यू तड़पते हो हमे इतना
प्रेम करो तुम सजा पाए हम ।
क्यू हम हर दिन भिगो देते हो शरद ऋतु है ।
मिलन और वियोग दोनों के मौसम एक ।
वही महीना वही दिन वही मौसम ह्रदय अब भी इंतजार की अग्नि मै प्रीतिदिन आहुति डाले जा रहा की आज ,,आज ,,आज ।
किंतु घिरती घटा समय नष्ट नही करती ।
वो घिर ही जाती है।
वो सुरज के आने का रास्ता नही ताकती ।
वो तो बस घिर जाती है ।
मेरे जीवन मै उदय वो सुरज अब थक चुका ।
उसे विश्राम करना , मेरे सिरहाने सर रखकर नहीं ।
मां की गोद ।
खैर ये भी सही है ।
मां की गोद तो समस्त संसार का सुख देने वाली है।
उसे ये अच्छा लगा यही सही।
मेरे अनेकों प्रश्न मुझमें रूदन कर रहे हैं।
वो चाहते हैं जवाब रूपी जल से उन्हे भी सीचा जाए ।
इस ह्रदय को बस एक आलिंगन , जिससे उसकी सारी खुशबू को खुदमे समाहित करले ।
उसका स्प्रश गर प्राणों को मिला तो जीवंत का आहवान हो ।
कभी खत्म न होने वाली मेरी बाते आज थम गई ।
आज रूक गए कदम जो निरंतर उसकी ओर अग्रसर हो रहे थे।
चेतना का चित्त ही अब स्वां चैत मै नहीं है ।
तो अब तृष्णा और अभिलाषाओं पर क्या कहूं।
मेरे निस्वार्थ प्रेम की अभिलाषाएं सिर्फ इतनी थी ।
वो अपने जीवन का थोड़ा समय हमारे साथ व्यतीत करे
और हम उसके कुछ खास हो सुख और दुख मै हम तक खुदको पहुंचाने का जिद हो ।
वो हमे अपने जीवन के सफर में यात्री के रात्रि बताए थे ।
हम रातों तक इंतजार करते है किंतु अब उनका कोई संदेश नही आता ।
काश कबूतरों को पदस्थ नहीं किया गया होता तो मेरे ह्रदय में थोड़ा धैर्य बाकी होता ।
मेरे रास्ते ,मंजिल और हर गली , दरवाजे अलग है उनसे ।
मेरा कोई किनारा जाता नही उन तक।
फिर भी उनसे मिलने की मेरी इच्छा खत्म नही होती।
लगता है किसी दिन नदी की तरह सिंधु से सामना जरूर होगा।
किंतु जल आंचल मे नही आंखों
होगा ।
सोचती हूं मीरा ने मोहन के बिना , उर्मी ने लक्ष्मण के बिना , रति ने कामदेव के बिना ।
कैसे काटे होंगे पल , कैसे बिताई होंगी राते।
आपकी याद बहुत निर्मम है , दिन रात सताती ।
रुलाती कभी , कभी कचोटती है मन को।
तो कभी नाराजगी दिलाती हैं।
सोचती हूं कदाचित आप ही मेरे सर्वस्व होते ,।
किंतु उस क्षण मन रह रह कर बिगड़ता , मिचलता है।
मेरे प्रेम की शायद कमी थी जो आप ऐसे रुष्ठ हो गए ।
काश कोई पक्षी ही होती तो आपसे पूछती आपतक पहुंचकर ।
बताओ क्या है बात ,क्यू इतने हताश हो ।
क्या त्रास है , ।
कभी कभी,मन मे विद्रोह की ज्वाला जलती है ।
तो कभी प्रेम की निर्मल , सलिल , अविरल गंगा बहती ।
कभी समय मिले तो इसमें इस्नान जरूर करना मेरा इस्पर्ष करे फिरसे मुझे शांत करना ।।।






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