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ना कहना सीखे
ना कहना सीखे

कई दफा ऐसा होता है कि हमारे आसपास के लोगों को या किसी अन्य को हम ना चाहते हुए भी ना नहीं कर पाते, ऐसा क्यों? इसे हम आत्मीयता या मानवीय व्यवहार कह सकते हैं।
यह अच्छी आदत है कि आप लोगों की सहायता करते हो, लेकिन आपका मन नहीं है फिर भी बेमन से आप न चाहते हुए भी उनके लिए काम करना या उस काम को करना पड़ रहा हों तो ये अपनी खुशियों तिलांजलि देने जैसा ही है।

मानों आप ऑफिस के लिए निकल रहे हों, तभी आपका अजीज दोस्त आकर बोलता है कि यार आपकी बाइक देना मुझे अपनी गर्लफ्रेंड से मिलने जाना हैं, ऐसे दुविधा में आप क्या करोगे? एक तो वो आपका अजीज दोस्त और दूसरा आप ऑफिस के लिए पहले ही लेट हो।

ऐसे ही मानों आपके पास कुछ कॉलेज की फीस भरने के लिए पैसे थे, जो आपको कॉलेज में जमा करवाने थे तभी आपका दोस्त दौड़ता हुआ आता है और बोलता है कि भाई! माँ की तबियत ज्यादा खराब है और उन्हें अस्पताल में दिखाना है, थोड़े पैसों की जरूरत है और कुछ दिनों में मैं आपके पैसे लौटा दूँगा।

यहां भी दुविधा है एक तरफ कॉलेज में फीस जमा नहीं हुआ तो उसे प्रवेश नहीं लेने देंगे और दूसरे तरफ दोस्त की माँ जो बहुत ज्यादा बीमार है, जिसे शायद समय पर इलाज न मिले तो बचना मुश्किल हो जाएगा।
यहां मैंने दो हालात बताए है अब किसी के लिए हां कहे और किसके लिए ना.... आपको वो ही काम करना चाहिए जो जरूरी है पहले में आपको ऑफिस पहुचना जरूरी है, क्योंकि आप पहले ही लेट हो गए, आप अपने दोस्त को मना कर सकते हो।
पर वो दोस्त जिसकी माँ बीमार है उसकी सहायता आपको करनी चाहिए, क्योंकि वो किसी की जिंदगी का सवाल है।
मैंने यहां दो ही हालात रखे हैं ऐसा कुछ भी हो सकता है आप कहीं जल्दी में जा रहे हो और आपका कोई रिश्तेदार मिल जाए और बोले कि बैठो बैठो चाय पीते है, जबकि आपको किसी जरूरी काम के लिए देरी हो रही है... ऐसे ही कई हालात आपके सामने आए दिन आते होंगे जिनमे आप न चाहते हुए भी ना नहीं कह पाते।

जो काम जरूरी नहीं उसके लिए हमें ना कहना आना चाहिए, फिर चाहे इससे किसी को बुरा लगे या अच्छा।
कोई आपके व्यवहार का फायदा उठाए ये गलत है, जहां आपको लगता है कि ये ठीक नहीं है तो उसे ना कहें।

चेतन घणावत स.मा.
साखी साहित्यिक मंच, राजस्थान

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